________________ 260 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश ___सनातनजैनग्रन्थमालाके प्रथम गुच्छक में प्रकाशित तत्वार्थसूत्र में भी, जो कि एक प्राचीन गुटके परसे प्रकाशित हुआ है, मंगलाचरण नहीं है, और भी बम्बई-बनारस मादिसे प्रकाशित हुए मूल तत्त्वार्थसूत्रके कितने ही संस्करणोंमें वह नहीं पाया जाता, अधिकांश हस्तलिखित प्रतियोंमें भी वह नहीं देखा जाता पौर कुछ हस्तलिखित प्रतियोंमें वह पद्य 'काल्यं द्रव्यषटकं.' 'उज्जोवरणमुज्जवरणं' इन दोनों अथवा इनमेंसे किसी एक पथके साथ उपलब्ध होता है मोर इससे यह मालूम नहीं होता कि वह मून ग्रन्थकारका पछ है बल्कि दूसरे पचोंकी तरह ग्रन्थके शुरूमें मंगलाचरणके तौरपर संग्रह किया हमा जान पड़ता है साथ ही श्वेताम्बर सम्प्रदायमें जो मूल तत्त्वार्थसूत्र प्रचलित है उसमें भी यह अथवा दूसरा कोई मंगलाचरण नहीं पाया जाता। ऐसी हालतमें लघुममन्तभद्रके उक्त कथनका प्रष्टसहस्री ग्रन्थ भी कोई स्पष्ट आधार प्रतीत नहीं होना / पौर दि यह मान भी लिया जाय कि विद्यानन्दने सूत्रकार या शास्त्रकारमे 'उमारवानि' का और तन्वार्थशास्त्रसे उनके 'तत्वार्थाधिगम मोक्षशास्त्र' का उल्लेख किया है और इस लिये उक्त पद्यको नन्वार्थाधिगमसूत्रका मंगलाचरण माना है तो इसमे प्रष्टसहस्री पोर प्राप्तपरीक्षाके उक्त कथनोंका सिर्फ इतना ही नतीजा निकलता है कि ममन्नभद्रने उमास्वातिके उक्त पद्यको लेकर उमपर उमी तरहम 'प्राममीमांसा' ग्रन्थकी रचना की है जिम तरहसे कि विद्यानंदने उसपर 'पासपरीक्षा' लिखी हैअथवा यो कहिये कि जिस प्रकार 'प्राप्तपरीक्षा' की मष्टि लोकवार्तिक-भाष्यको लिखते हुए नही की गई और न वह इलोकवातिकका कोई अंग है उमी प्रकारकी स्थिनि गन्धहस्ति महाभाष्यके समान्धमें 'प्राप्तमीमांसा' की भी हो सकती है, उसमें प्रप्टमहस्री या प्राप्तपरीक्षाके उक्त वचनोंमे कोई बाधा नहीं पाती; और न उनमे यह लाजिमी माता है कि ममूचे तत्वार्थमृत्रपर महा * ' ममन्तभद्र-मारती-स्तोत्र' के निम्न वाक्यसे भी कोई बाधा नही माती, जिसमें सांकेतिक रूपमे समन्तभद्रको भारती ( प्राप्तमीमांसा ) को 'गृपिच्छाचार्यके कहे हुए प्रकृष्ट मंगलके प्राशयको लिये हुए' बतलाया है "गृपिच्छ-भाषित-प्रकृष्ट-मंगलाधिकाम् / "