________________ 212 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश रचनाका लाजिमी नतीजा उनसे नहीं निकल सकेगा। इसके सिवाय, मातमीमांसाके साहित्य अथवा संदर्भपरसे जिस प्रकार उक्त पद्यके अनुसरणकी या उसे अपना विचाराश्रय बनानेकी कोई खास ध्वनि नहीं निकलती उसी प्रकार 'वसुनन्दि-वृत्ति' की प्रस्तावना या उत्थानिकासे भी यह मालूम नहीं होता कि प्राप्तमीमांसा उक्त मंगलपद्य ( मोक्षमार्गस्य नेतारमित्यादि ) को लेकर लिखी गई है, वह इस विषयमें प्रष्टसहस्रीकी प्रस्तावनासे कुछ भिन्न पाई जाती है और उससे यह स्पष्ट मालूम होता है कि समन्तभद्र स्वयं सर्वज्ञ भगवानकी स्तुति करने के लिये बैठे है-किसीकी स्तुतिका समर्थन या स्पष्टीकरण करनेके लिये नहीं ---उन्होंने अपने मानसप्रत्यक्ष द्वारा सर्वज्ञको साक्षात् करके उनसे यह निवेदन किया है कि ' हे भगवन्, माहात्म्यके प्राधिक्य-कथनको 'स्तवन' कहते है और आपका माहात्म्य प्रतीन्द्रिय होनेसे मेरे प्रत्यक्षका विषय नही है, इस लिये में किस तरहसे आपकी स्तुति करू ? उत्तरमें भगवान्की अोरमे यह कहे जानेपर कि, हे वत्स ! जिस प्रकार दूसरे विद्वान् देवोंके प्रागमन और प्राकागमें गमनादिक हेतुसे मेरे माहात्म्यको समझकर स्तुति करते है उस प्रकार तुम क्यों नहीं करते ?' समन्तभद्रने फिर कहा कि भगवन् ! इस हेतुप्रयोगमे आप मेरे प्रति महान् नहीं ठहरते-में देवोके प्रागमन और आकाशमें गमनादिकके कारण प्रापको पूज्य नहीं मानता-क्यांकि यह हेतु व्यभिचारी है, ' और यह कह कर उन्होंने प्रासमीमांसाके प्रथम पद्य-द्वाग उसके व्यभिचारको दिखलाया है; प्रागे भी इसी प्रकार के अनेक हतुप्रयोगों तथा विकलगोंको उठाकर आपने अपने ग्रन्थकी क्रमशः रचना की है अष्टमहस्रीको प्रस्तावनाके जो शब्द पीछे फुटनोटमें उद्धृत किये गये हैं उनमे यह पाया जाता है कि निःश्र यमगास्त्रकी प्रादिमे दिये हुए मंगलपमें प्राप्तका स्तवन निरतिशय गुणोंके द्वारा किया गया है; इसपर मानों प्राप्त भगवानने समन्तभद्रसे यहपूछा है कि मैं दवागमादि विभूतिके कारण महान है, इस लिये इस प्रकारके गुणातिशयको दिखलाते हुए निःश्रेयस शास्त्रके कर्ता मुनिने मेरी स्तति क्यों नहीं की ? उत्तरमें समन्तभद्रनं प्राप्तमीमांसाका प्रथम पद्य कहा है। और उसका 'न: ' पद खाम तौरमे ध्यान देने योग्य है।