________________ 540 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश प्रयुक्त हुए 'मभ्रान्त' विशेषणकी उपयोगिता बतलाते हुए "भ्रान्तं घनुमानम्" इस वाक्यके द्वारा अनुमानको भ्रान्त प्रतिपादित किया है। जान पड़ता है इस सबको भी लक्ष्यमें रखते हुए ही सिद्धसेनने अनुमान के "साध्याविनाभुनो (वो) लिंगात्साध्यनिश्चायकमनुमान'' इस लक्षणका विधान किया है और इसमें लिंग का 'साध्याविनाभावी' ऐसा एकरूप देकर धर्मकीतिके 'त्रिरूप'का-पक्षधर्मत्व, सपक्षेसत्व तथा विपक्षासत्वरूपका निरयन किया है। साथ ही, 'तदभ्रान्तं समक्षवत्' इस वाक्यकी योजनाद्वारा अनुमानको प्रत्यक्षकी तरह प्रम्रान्त बतलाकर बौद्धोंकी उमे भ्रान्त प्रतिपादन करनेवाली उक्त मान्यताका खण्डन भी किया है / इसी तरह "न प्रत्यक्षमपि भ्रान्तं प्रमाणत्वविनिश्चयात्' इत्यादि छठे पद्यमें उन दूसरे बौद्धोंकी सान्यताका खण्डन किया है जो प्रत्यक्षको अभ्रान्त नहीं मानते। यहाँ लिंगके इस एकरूपका और फलत: अनुमानके उक्त लक्षगणका प्राभारी पात्र स्वामीका वह हेतृलक्षरण है जिसे न्यायावतारकी २२वीं कारिकामें अन्यथानुपपन्नत्वं हेनोर्लक्षणमीरितम्" इस वाक्यके द्वारा उद्धृत भी किया गया है और जिसके आधार पर पात्रम्वामीने बौद्धोंके विलक्षणहेतुका कदर्थन किया था तथा 'विलक्षगणकदर्थः।" नामका एक स्वतन्त्र ग्रन्थ ही रच डाला था, जो आज अनुपलब्ध है परन्तु उसके प्राचीन उल्लेख मिल रहे है। विक्रमको ८वीं-६वीं शताब्दीके बौद्ध विद्वान् शान्तरक्षितने सत्त्वमंग्रहमें त्रिलक्षणकदर्थनसम्बन्धी कुछ श्लोकोंको उद्धन किया है और उनके शिष्य कमलशीलने टीकामें उन्हें "अन्यथेत्यादिगा पात्रस्वामिमतमाशङ्कने” इत्यादि वाक्योंके साथ दिया है। उनमें से तीन श्लोक नमूने के तौर पर इस प्रकार है अन्यथानुपपन्नत्वे ननु दृष्टा मुहेतुता। नाऽसति व्यंशकस्याऽपि तम्मान क्लीवास्त्रिलक्षणाः // 1364 // अन्यथानुपपन्नत्वं यस्य तस्यैव हेतुता। दृष्टान्ती द्वावपिस्ता वा मा या तो हि न कारणम् // 136 // * महिमा स पात्रकेसरिगुरोः परं भववि यस्य भक्तमासीत् / पद्मावती सहाया त्रिलक्षणकदर्थन कर्तुम् // -मल्लिपेणप्रशस्ति (10 शि० 54 )