________________ सन्मति सूत्र और सिद्धसेन 536 नुसार धर्मकीतिने दिग्नागके प्रत्यक्षलक्षण में 'कल्पनापोत्र' विशेपणके माथ 'प्रभ्रान' विशेषणकी वृद्धि कर उसे अपने अनुरूप सुधारा या प्रयवा प्रगम्तरूप दिया था और इमलिये "प्रत्यक्ष कल्पनापानमभ्रान्तम्' यह प्रत्यक्षका धर्मकीतिप्रतिपादिन प्रसिद्ध लक्षण है जो उनके न्यायविन्दु ग्रन्यमें पाया जाता है और जिम में 'प्रभ्रान्त' पद अपनी ग्वाम विगंपता रखता है। न्यायावतारके चौथे पद्यमें प्रत्यक्षका लक्षण, प्रकलदेव की तरह, 'प्रत्यक्षं विगदं ज्ञानं' न देकर, जो "अपरोक्षनशाम्य ग्राहकं ज्ञानमणि प्रत्यक्षम्" दिया है और अगले पद्यमे, अनुमानका लक्षण देने हए. 'नदम्रानं प्रमाण वात्ममत्रवत" वाक्य के द्वारा उसे (प्रत्यक्षको) 'प्रधाल' विशेषामे विपित भी सूचित किया है उसने यह माफ वनित होता है कि मिद्धमेनके मामने-उनके व यम-धर्मकीतिका उक्त लक्षण भी स्थित था और उन्होंने अपने लक्षगमे ग्राहक' पदके प्रयोग-दाग जहाँ प्रत्यक्षको व्यवमायामक ज्ञान बनाकर धमकीनिक कल्पनापो' विपणका निरमन अथवा बंधन किया है वहीं उनके प्रभ्रान्न' विशेषगको प्रकागलर. से स्वीकार भी किया है। यायावनार के टीकाकार सिद्धार भी 'ग्राहक पदके द्वारा बोद्धा (धमक निबन लक्षणका निग्मन होना बतलाते है। था___ "ग्राहकमिनि च निगायक दव्यं, निणयाभावेऽर्थग्रहगायोगान / तेन यन नाथागर्न प्रत्यादि प्रत्यन कल्पनापीढमभ्रान्तम [ न्या. वि. 4] इनि. नदपान्तं भवनि / नभ्य गृक्ति रक्तवान / इसी तरह प्रिलिजायद मेदे जान तदनुमान' यह धमकीनिक अनुमानका लक्षण है। एमग त्रिसपान पके दाग लिङ्गको त्रिरूपात्मक बनानाकर अनुमानो माशारण लक्षणको एक विप दिया गया है / यह "म अनुमानमानको मान्न या भ्रानोमा कोई विशेषण नहीं दिया गया; परन्तु न्याबिन्दुको टोकामे धमनिग्ने प्रत्यक्ष लक्षणको मस्या करने और उसमें देखो 'ममगनाहा' को जंकावीकृत प्रनावना तथा न्यायावतारको रा. पी. एम. खकन प्रानावना / (r) "प्रत्यक्ष कल्पनापोडं नाममायाम युनम् / " (प्रमाणममन्वय) / "प्रत्यक्ष कामापीर यग्नान नाममात्यादिकल्पनाहितम् / ' (न्यायप्रवेश)।