________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र त्रयेण किम् ? / नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र येण किम् ? // 1366 / / इनमेंमे तीसरे पद्यको विक्रमकी ७वीं-८वीं शताब्दीके विद्वान् अकलंकदेवने अपने 'न्यायविनिश्चिय' (कारिका 323) में अपनाया है और सिद्धिविनिश्चय (प्र. 6) में इसे स्वानीका 'अमलालीढ पद' प्रकट किया है तथा वादिराजने न्यायविनिश्चय-विवरणमें इस पद्यको पात्रकेसरीसे सम्बद्ध 'अन्यथानुपपत्तिवातिक' बतलाया है। धर्मकीनिका समय ई० सन् 625 मे 650 अर्थात् विक्रमकी ७वीं शतान्दोका प्राय: चतुर्थ चरण, धर्मोनका समय ई. सन् 725 से 75. अर्थात् विक्रमकी ८वीं शताब्दीका प्राय: चतुर्थ चरण और पात्रस्वामीका समय विक्रमको की गताब्दीका प्राय: तृतीय चरा पाया जाता है; क्योंकि वे अलककदेवमे कुछ पहने हुए हैं। तब मन्मतिकार मिद्ध मेनका ममय वि० संवत् 666 मे पूर्वका मुनिश्चित है जमा कि अगले प्रकरण में स्पष्ट करके बतलाया जायगा / ऐसी हालत में जो मिद्धमेन मन्मनिके वर्ग हैं वे ही न्यायावतारके कर्ता नहीं हो सकने-ममयको दृष्टिले दोनों ग्रन्थोंके का एकदूसरेसे भिन्न होने चाहिये। __ दम विषय में पं० सुग्ख लाल जी प्रादिका यह कहना है कि 'पो० टुनी ( Tousi ) ने दिग्नागमे पूर्ववर्ती बौद्व न्यायके ऊपर जो एक निवन्ध रॉयल एशियाटिक मोमाइटीके जुलाई सन् 166 के जर्नल में प्रकाशित कराया है उस में बौद्ध-संस्कृत-ग्रन्थोंके चीनी तथा निव्वनी अनुवादके प्राधार पर यह प्रकट किया है कि योगाचार्य भूमिशास्त्र और प्रकरणार्यवाचा नामके ग्रन्थोंमें प्रत्यक्ष की जो व्याख्या दी है उसके अनुसार प्रत्यक्षको अपरोक्ष. कल्पनापोड, विक्रममवत 700 में प्रकलंकदेवका बौद्धोके साथ महान् वाद हुमा है, जैसा कि प्रकलंकचरितके निम्न पद्यसे प्रकट हैविक्रमार्क-शकाब्दीय-शतमप्त-प्रमा जुपि / कालेऽकलंक-यतिनो बौद्धर्वादो महानभूत् / / *देखो, सन्मतिके गुजराती संस्करण की प्रस्तावना पृ० 41, 42, मौर अंग्रेजी संस्करण की प्रस्तावना पृ. 12, 14 /