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________________ 542 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश निर्विकला और भूल विनाका अभ्रान्त प्रथवा अव्यभिचारी होना चाहिये / साथ ही प्रभ्रान्त तथा मव्यभिचारी शब्दोंपर नोट देते हुए बतलाया है कि ये दोनों पर्यायशब्द है, और चीनी तथा तिब्बती भाषाके जो शब्द अनुवादों में प्रयुक्त है उनका अनुबाद मभ्रान्त तथा प्रव्यभिचारी दोनों प्रकारसे हो सकता है / और फिर स्वयं 'प्रभ्रान्त' शब्दको ही स्वीकार करते हुए यह अनुमान लगाया है कि धर्मकीतिने प्रत्यक्षकी व्याख्यामें मभ्रान्त' शब्दको जो वृद्धि की है वह उनके द्वारा की गई कोई नई वृद्धि नहीं है बल्कि सौत्रान्तिकोंकी पुरानी व्याख्याको स्वीकार करके उन्होंने दिग्नाग की व्याख्यामें इस प्रकारसे सुधार किया है। योगाचार्य-भूमिशास्त्र प्रसङ्गके गुरु मंत्रयको कृति है, प्रसङ्ग (मंत्रेय ?) का समय ईसा की चौथी शताब्दीका मध्यकाल है, इससे प्रत्यक्षके लक्षण में 'मभ्रान्त' शब्दका प्रयोग तथा प्रभ्रान्तपना का विचार विक्रमको पांचवीं शताब्दीके पहले भले प्रकार ज्ञात था प्रर्थात् यह (प्रभ्रान्त ) शब्द मुप्रसिद्ध था / अतः सिद्धसेनदिवाकरके न्यायावतारमें प्रयुक्त हुए मात्र 'प्रभ्रान्त' पदपरमे उसे धर्मकीतिके बादका बतलाना जरूरी नहीं। उसके कर्ता सिद्धसेनको प्रसङ्गके बाद और धर्मकीतिके पहले मानने में कोई प्रकारका अन्तराय (विघ्न-बाधा) नहीं है।' ___ इस कथनमें प्रो. टुचीके कपनको लेकर जो कुछ फलित किया गया है वह ठीक नहीं है। क्योंकि प्रथम तो प्रोफेसर महाशय अपने कथनमें स्वयं भ्रान्त हैवे निश्चयपूर्वक यह नहीं कह रहे हैं कि उक्त दोनों मूल संस्कृत ग्रन्थोंमे प्रत्यक्षकी जो व्याम्या दी अथवा उसके लक्षणका जो निर्देश किया है उसमें 'प्रभ्रान्त' पदका प्रयोग पाया ही जाता है बल्कि साफ तौरपर यह सूचित कर रहे है कि मूल ग्रन्थ उनके सामने नही, चीनी तथा तिब्बती अनुवाद ही सामने हैं और उनमें जिन शब्दों का प्रयोग हुमा है उनका प्रयं प्रधान्त तथा अव्यभिचारि दोनो रूपसे हो सकता है। तीसरा भी कोई अर्थ अथवा संस्कृत शब्द उनका वाच्य हो सकता हो तो उसका निषेष भी नहीं किया। दूसरे, उक्त स्थितिमें उन्होंने अपने प्रयोजनके लिये जो सभ्रान्त पद स्वीकार किया है वह उनकी रुचिकी बात है न कि मूल में प्रधान्त पदके प्रयोगकी कोई गारंटी है और इसलिए उसपरसे निश्चितरूपमें यह फलित कर लेना कि
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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