________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन 'विक्रमकी पांचवीं शतानीके पहले प्रत्यक्ष लक्षरणमें अभ्रान्त पदका प्रयोग भले प्रकार ज्ञात तथा सुप्रसिद्ध था' फलितार्थ तथा कथनका अतिरेक है और किसी तरह भी समुचित नहीं कहा जा सकता। तीसरे, उन मूल संस्कृत ग्रन्थोंमें यदि 'प्रश्यभिचारि' पदका ही प्रयोग हो तब भी उसके स्थानपर धर्मकीतिने 'प्रभ्रान्त' पदकी जो नई योजना की है वह उसीकी योजना कहलाएगी और न्यायावतारमें उसका अनुसरण होनेमे उसके कर्ता सिद्धसेन धर्मकीतिके बादके ही विद्वान् ठहरेंगे। चोथे, पात्रकेसरीस्वामीके हेतु-लक्षणका जो उद्धरण न्यायावतारमें पाया जाता है और जिसका परिहार नही किया जा सकता उससे सिद्धसेनका धर्मकीर्तिके बाद होना और भी पुष्ट होता है / ऐसी हालतमें न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेनको प्रसङ्गके बादका और धर्मकीतिके पूर्वका बतलाना निरापद् नही है-उसमें अनेक विघ्न-बाधाएं उपस्थित होती हैं। फलतः न्या. यावतार धमकीर्ति और पात्रस्वामी के बादकी रचना होनेसे उन सिद्धसेनाचार्यकी कृति नही हो सकता जो सन्मतिसूत्रके कर्ता है। जिन अन्य विद्वानोंने उसे अधिक प्राचीनरूपमें उल्लेखित किया है वह मात्र द्वात्रिंशिकानों, सन्मति और न्यायावतारको एक ही सिद्धसेनकी कृतियां मानकर चलनेका फल है। इस तरह यहाँ तकके इस सब विवेचनपरसे स्पष्ट है कि सिद्धसेनके नामपर जो भी ग्रन्थ चढ़े हुए है उनमें से सन्मतिमूत्रको छोड़कर दूसरा कोई भी ग्रन्थ सुनिश्चितरूपमें सन्मतिकारकी कृति नहीं कहा जा सकता-प्रकेला सन्मतिसूत्र ही असपत्नभावसे अभीतक उनकी कृतिरूपमें स्थित है। कलको प्रविरोधिनी द्वात्रिशिकामोंमेसे यदि किसी द्वात्रिशिकाका उनकी कृतिरूपमें सुनिश्चय हो गया तो वह भी सन्मतिके साथ शामिल हो सकेगी। (ख) सिद्धसेनका समयादिक अब देखना यह है कि प्रस्तुत ग्रन्थ 'सन्मति' के कर्ता सिद्धसेनाचार्य कब हुए हैं और किस समय अथवा समयके लगभग उन्होंने इस अन्यकी रचना को है। प्रत्यमें निर्माणकालका कोई उल्लेख भौर किसी प्रशस्तिका प्रायोजन म होनेके कारण दूसरे साधनोंपरसे ही इस विषयको जाना जा सकता है और वे दूसरे साधन है अन्यका अन्तःपरीक्षण-उसके सन्दर्भ-साहित्यकी जांच.