________________ 616 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश घनफलोंको निकाला गया है जिसके संस्थापक वीरसेन है। पोर वीरसेन इस मान्यताके संस्थापक इसलिये है कि उनसे पहले इस मान्यताका कोई अस्तित्व नहीं था, उनके समय तक सभी जैनाचार्य 343 पनराजुवाले उपमालोक ('परिमाणलोक) से पांच द्रव्योंके प्राधारभूतलोकको भिन्न मानते थे। यदि वर्तमान तिलोयपण्णति वीरसेनके सामने मौजूद होती अथवा जो तिलोयपाति वीरमेनके सामने मौजूद थी उसमें उक्त मान्यताका कोई उल्लेख अथवा संसूचन होता तो यह प्रसभव था कि वीरसेनस्वामी उसका प्रमारणरूपसे उल्लेख न करते / उल्लेख न करनेसे ही दोनोंका प्रभाव जाना जाता है।' अब देखना यह है कि क्या वीरसेन सचमुच ही उक्त मान्यताके संस्थापक है और उन्होंने कही अपनेको उसका संस्थापक या माविष्कारक प्रकट किया है। जिस धवला टोकाका शास्त्रीजीने उल्लेख किया है उसके उस स्थलको देख जानेसे वैसा कुछ भी प्रतीत नही होता / वहाँ वीरसेनने, क्षेत्रानुगम अनुयोगद्वारके 'प्रोपेण मिच्छादिठ्ठी केवडि खेते, सबलोगे' इस द्वितीयसूत्र में स्थित 'लोगे' पदको व्याख्या करते हुए बतलाया है कि यहाँ 'लोक'से सात राजु घनरूप (343 धनराजु प्रमाण ) लोक प्रहरण करना चाहिए, क्योंकि यहां क्षेत्र प्रमाणाधिकारमें पल्प, सागर, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुन, जगश्रेणी, लोक. प्रतर और लोक ऐसे पाठ प्रमाण कमसे माने गए हैं / इससे यहां प्रमाणलोककाही ग्रहण है -जो कि सात राजुप्रमाण जगणीका पनम्प होना है / इसपर किसीने शंका की कि यदि ऐसा लोक ग्रहण किया जाता है तो फिर पांच द्रव्योंके आधारभूत माकागका ग्रहण नही बनता; क्योंकि उसमें सात राजु के घनरूप क्षेत्रका प्रभाव है / यदि उसका क्षेत्र भी मातराडके धनरूप माना जाता है तो 'हेट्ठा मज्झे उवरि', 'लोगों प्रकिट्टमो बलु' पोर 'लायरस विक्खंभो च उप्पयारो' ये तीन मूत्र-गागा, मप्रमाणताको प्रात होती है। इस शंकाका परिहार (ममाधान) करते हए वीरमेनस्वामीने पुनः बनलाया है कि यहाँ 'लोगे' पदमें पंचद्रव्योंके माधाररूप प्राकानका ही पहरण है, अन्य का नहीं। क्योंकि 'लोगपूरणगो केवली केटि से, सम्बनोगे (नोकपूरण समुद्घातको प्राप्त केवली कितने क्षेत्रमें रहता है ? सर्वलोकमें रहता है) ऐसा सूत्रवचन पाया जाता है। यदि लोक सात राजु के पनप्रमाण नहीं है तो यह