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________________ वीर-शासनकी उत्पत्तिका समय और स्थान आधे समवसरणे सर्वेषामर्हतामिह । उत्पन्न तीर्थमन्त्यस्य जिनेन्द्रस्य द्वितीयके ।। १७-३२ -लोकप्रकाश, खं० ३ __इनमें श्री वीर-जिनेन्द्रके तीर्थको द्वितीय समवसरणमें उत्पन्न हुअा बतलाया है, जबकि शेष सभीजैन तीर्थकरोंका तीर्थ प्रथम समवसरणमें उत्पन्न हुआ है । श्वेताम्बरीय आगमोंमें इस प्रथम समवसरणमें तीर्थोत्पत्तिके न होनेकी घटनाको आश्चर्यजनक घटना बतलाया है और उसे आमतौर पर 'अछेरा' (असाधारण घटना) कहा जाता है । अब देखना यह है कि, दूसरा समवसरण कब और कहाँपर हुआ ? और प्रथम समवसरणमें भगवानका शामनतीर्थ प्रवर्तित न होनेका क्या कारण था ? इस विषयमें अभी तक जितना श्वेताम्बर-माहित्य देखनेको मिला है उसमे इतना ही मालूम होता है कि प्रथम समवमरगमें देवता ही देवता उपस्थित थे—कोई मनुष्य नहीं था, इमसे धर्मतीर्थका प्रवर्तन नहीं हो सका। महावीरको केवलज्ञानकी प्राप्ति दिनके चौथे पहरमे हुई थी, उन्होंने जबयह देखा कि उस समय मध्यमा नगरी ( वर्तमान पावापुरी) में सोमिलार्य ब्राह्मणके यहाँ यज्ञ-विषयक एक बड़ा भारी धार्मिक प्रकरण चल रहा है, जिसमें देश-देशान्तरोंके बड़े-बड़े विद्वान् आमन्त्रित होकर आए हुए हैं तो उन्हें यह प्रसंग अपूर्वलाभका कारण जान पड़ा और उन्होंने यह सोचकर कि यज्ञमें आए हाए विद्वान ब्राह्मण प्रतिबोधको प्राप्त होंगे और मेरे धर्मतीर्थ केअाधारस्तम्भ बनेगे.संध्या-समय ही विहार कर दिया और वे रातोंरात १२ योजन (४८ कोस) चल कर मध्यमाके महासेननामक उद्यानमें पहुँचे, जहाँ प्रातःकालसे ही समवसरणको रचना होगई। इस तरह बैसाख मुदि एकादशीको जो दूसरा समवरण रचा गया उसमें वीरभगवानने एक पहर तक विना किमी गणधरकी उपस्थितिके ही धर्मोपदेश दिया । इस धर्मोपदेश और महावीरकी सर्वज्ञताकी खबर पाकर इन्द्रभूति आदि ११ प्रधान ब्राह्मण विद्वान् अपने अपने शिष्यसमूहोंके साथ कुछ आगे पीछे समवसरणमें पहुंचे और वहाँ वीरभगवानसे साक्षात् वार्तालाप करके अपनी अपनी शंकामोंकी निवृत्ति होनेपर उनके शिष्य बन गये, उन्हें ही फिर वीरप्रभु-द्वारा
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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