________________ 506 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश उपाध्याय यशोविजयके ग्रन्थों में मिलता है / ___इस ग्रन्यमें, विचारको दृष्टि प्रदान करनेके लिये, प्रारम्भमे ही द्रव्याथिक (द्रव्यास्तिक ) मोर पर्यायाथिक ( पर्यायास्तिक ) दो मूल नयोंको लेकर नयका जो विषय उठाया गया है वह प्रकारान्तरसे दूसरे तथा तीसरे काण्डमें भी चलना रहा है और उसके द्वारा नयवादपर अच्छा प्रकाश डाला गया है / यहाँ नयका थोड़ा-मा कथन नमूने के तौरपर प्रस्तुत किया जाता है, जिससे पाठकोंको इम विषयकी कुछ झोकी मिल सके: प्रथम काण्ड में दोनों नयों के सामान्य-विशेषविषयको मिश्रित दिखलाकर उम मिश्रितपनाको चर्चाका उपसंहार करते हुए लिखा है दव्यट्रिनो नि नम्हा स्थि यात्री नियम मुद्धजाईश्रो। ण य पज्जवट्टिो गाम कोई भयग्णाय उ विमेमो / / / / 'प्रत: कोई द्रव्याथिक नय ऐमा नहीं जो नियम में युद्ध जातीय हो- अपने प्रति-पक्षी पर्यायाथिकनयकी प्रोक्षा न रखना हुमा उमके विषय मे मृन हो / इमी तरह पर्यायाथिक नय भी कोई ऐमा नहीं जो शुद्धजानीय हो-अपने विपक्षी द्रव्याथिकनयकी अपेक्षा न रम्बना हुमा उसके विषय पर्शमे रहित हो / विमाको लेकर ही दोनोंका भेद है-विवक्षा सम्य-गोग के भावको लिये दा होती है द्रव्याथिकमें द्रग-मामान्य समय पर पर्याय-विशेष गोण होता है प्रोर . याथिक में विशेष मुख्य तथा सामान्य गोग होता है।' इसके बाद बतलाया है कि-'पर्यायाचिकनयकी निमें दध्यायिकनमा बक्तव्य ( मामान्य ) नियममे अवस्तु है। इमी तरह द्रव्याथिकनयकी zip पर्यायाथिकनयका वक्तव्य (विशेष) प्रवस्तु है। पर्यायाधिकनयकी दृष्टि में गर्व पदार्थ नियममे उत्पन्न होते है और नायको प्राप्त होते है। द्रव्याथिक नगमा दृष्टि में न कोई पदार्थ उत्पन्न होता है और न नाचको प्राप्त होगा + "उक्तं च वादिमुम्येन श्रीमम्मवादिना मम्मतो' (अनेकालजयपताका ) "इहाथै कोटिया भला निर्दिष्टा मल्लवादिना / मूलसम्मति-टीकायामिदं दिमात्रदर्शनम् ॥"-(भटमहवी-टिपण ! स.प्र. 104.