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________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन 505 सकता उम लोकके अद्वितीय (प्रसाधारण) गुरु अनेकान्लयादको नमस्कार हो / ' इस तरह जो अनेकान्तवाद इस मारे ग्रन्थकी प्राधार मिला है और जिसपर उसके कथनोंकी ही पूरी प्राण-प्रतिष्ठा अवलम्बिन नही है बल्कि उस जिन, वचन, जैनागम प्रथवा जनगासनको भी प्रागा-प्रतिष्ठा अवलम्बित है, जिसकी प्रगली (अन्तिम) गाथामे मंगल-कामना की गई है और ग्रन्थकी पहली (प्रादिम ) गाथामें जिसे 'मिदनामन' घोषित किया गया है, उसीको गौरवगरिमाको इम गाथा में अन्रे युनिपरम्पर गमे प्रदमित किया गया है। और इम लिये यह गाया अपनी कथनगली पोर कुशल-माहित्य-योजनापरम ग्रन्थका प्रग होने के योग्य जान पाती है नया ग्रन्यकी अन्य मगल-कारिका मालूम होनी है। इसपर एकमात्र प्रमुक टीकाके न होने से ही यह नहीं कहा जा सकता कि वह मूलकार के दाग योजित न हुई होगी; क्योकि दूसरे ग्रन्थोंकी कुछ टीका मी भी पाई जाती है जिनमें में एक टीकामें कुछ पद्य मूलरूपमे टीका-माहित है नो मगम के नहीं पाये जाने हो और गका कारण प्राय : टीकाकारको गमी मूल प्रतिका ही उपलब्ध होना कहा जा सकता है जिसमें वे पद्य न पाये जाते हो / दिगम्बगनाय गमति ( मामन ) देवकी टीका भी इस ग्रन्यपर बनी है. जिमका उमेद वादिगजन पान पानाथरिन (कम 68 ) के निम्न पचमें किया है ... नमः मन्मनय ताम्मे भव-कृप-निपातिनाम् / सम्मतिविना येन मुस्वधाम-प्रवशिनी / / यह टीका भी ता उपलब्ध नहीं ह-योजका कोई सास प्रयत्न भी नहीं हो सका। इसके सामने पाने पर उन गाथा नया पोर भी अनेक बातोपर प्रकाश पर सकता है क्योकि यह टीका मनिदेवको कृति होने। ११वी शताब्दी के येनावरीय पासा भयको टोकामे कोई मान ताली पहले की बनी हुई होनी चाहिये / नेतासरावायं मल्लवादीको भी एक टीका इम पन्यपर पहले बनी है, जो भाग उपनाम नहीं है और बिमा उल्लेख हरिभद्र तथा मे समयसागदि बन्योंकी अमृतवन्द्रमूरिकन तथा जयनाचार्यकृत टीका, जिनमें कतिपय गाथायोकी न्यूनाधिबता पाई जाती है।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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