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जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सेलघण-भग्गघड-अहि-चालणि-महिसाऽवि-जाहय-सुएहि ।" . मट्टिय-मसयसमाणं वक्खाणइ जो सुदं मोहा ||१||
धद्-गारवपडिवद्धो विसयामिस-विस-वसेण घुम्मतो।
सो भट्टबोहिलाहो भमइ चिरं भव-वणे मूढो ।।२।। , इस वचनसे स्वच्छन्दचारियोंको विद्या देना संसार-भयका बढ़ाने वाला है। ऐसा चिन्तन कर, शुभ-स्वप्नके दर्शनसे ही पुरुषभेदको जाननेवाले धरसेनाचार्यने फिर भी उनकी परीक्षा करना अंगीकार किया। सुपरीक्षा ही निःसन्देह हृदयको मुक्ति दिलाती है * । तब धरसेनने उन्हें दो विद्याएँ दी-जिनमें एक अधिकाक्षरी, दूसरी हीनाक्षरी थी और कहा कि इन्हें पष्ठोपवासके साथ साधन करो। इसके बाद विद्या सिद्ध करके जब वे विद्यादेवताओंको देखने लगे तो उन्हें मालूम हुआ कि एकका दाँत बाहरको बढ़ा हुआ है और दूसरी कानी (एकाक्षिणी) है । देवताओंका ऐसा स्वभाव नहीं होता, यह विचार कर जब उन मंत्र-व्याकरणमें निपुण मुनियोंने हीनाधिक अक्षरोंका क्षेपण-अपनयन विधान करके-कमीवेशीको दूरकरके-उन मंत्रोंको फिरमे पढा तो तुरन्त ही वे दोनों विद्या देवियाँ अपने अपने स्वभाव-रूपमें स्थित होकर नज़र पाने लगीं। तदनन्तर उन मुनियोंने विद्या-सिद्धिका सब हाल पूर्णविनयके साथ भगवद् धरसेनसे निवेदन किया । इस पर धरसेनजीने सन्तुष्ट होकर उन्हे सौम्य तिथि मोर प्रशस्त नक्षत्रके दिन उस ग्रन्थका पढ़ाना प्रारम्भ किया, जिसका नाम 'महाकम्पपयडिपाहुड' (महाकर्मप्रकृतिप्राभृत) था । फिर क्रमसे उसकी व्याख्या करते हुए (कुछ दिन व्यतीत होने पर) आषाढ़ शुक्ला एकादशीको
* इन गाथाओंका संक्षिप्त प्राशय यह है कि 'जो आचार्य गौरवादिक वशवर्ती हुआ मोहसे ऐसे श्रोताओंको श्रुतका व्याख्यान करता है जो शैलघन, भग्न घट, सर्प, छलनी, महिष, मेष, जोंक, शुक, मिट्टी और मशकके समान हैं-इन जैसी प्रकृतिको लिये हुए हैं-वह मूढ बोधिलाभसे भ्रष्ट होकर चिरकाल तक संसार-वनमें परिभ्रमण करता है।' . * इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारमें 'सुपरीक्षा हृन्नितिकरीति, इत्यादि वाक्य के द्वारा परीक्षाकी यही बात सूचित की है, परन्तु इससे पूर्ववर्ती चिन्तनादि-विषयक कथन, जो इसपर 'धरसेन' से प्रारम्भ होता है, उसमें नहीं है।