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________________ 608 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश प्रेमीजी जब स्वयं अपने लेख में लिखते है कि "उपलब्ध 'लोकविभाग' जो कि संस्कृतमें है बहुत प्राचीन नहीं है / प्राचीनतासे उसका, इतना ही सम्बन्ध है कि वह एक बहुत पुराने शक संवत् 380 के बने हुए ग्रन्थसे अनुवाद किया गया है" और इस तरह संस्कृतलोकविभागको सर्वनन्दीके प्राकृत लोकविभागका अनुवादित रूप स्वीकार करते है / और यह बात में अपने लेख में पहले भी बतला चुका हूँ कि संस्कृत लोकविभागके अन्तमें ग्रन्थकी श्लोकसंख्याका ही सूचक जो पद्य है और जिसमें श्लोकसंख्याका परिमारण 1536 दिया है वह प्राकृत लोकविभागकी संख्याका ही सूचक है और उसीके पद्यका अनुवादित रूप है; अन्यथा उपलब्ध लोकविभागकी इलोकसंख्या 2030 के करीब पाई जाती है और उसमें जो 500 श्लोक-जितना पाठ प्रधिक है वह प्रायः उन 'उक्त च' पद्योंका परिमारण है जो दूसरे गन्यापरसे किसी तरह उद्धृत होकर रषखे गये है / तब किम आधारपर उक्न प्राकृत लोकविभागको 'बडा' बतलाया जाता है ? और किम माधार पर यह कल्पना की जाती है कि व्यारूपाम्यामि समाप्तेन' इस वाक्य के द्वारा सिंहमूरि स्वयं अपने ग्रंथ-निर्माण की प्रतिज्ञा कर रहे हैं और वह मर्वनन्दीको प्रथ-निर्माण-प्रतिज्ञाका अनुवादित रूप नहीं है ? इसी तरह 'शास्त्रम्य मंग्रहाम्वद' यह वाक्य भी सर्वनन्दीके वाक्यका अनुवादित रूप नहीं है ? जब सिंहमूरि स्वतन्त्र रूपमे किसी ग्रन्थका निर्माण प्रयवा संग्रह नहीं कर रहे है और न किमी प्रन्यकी व्याम्या ही कर रहे हैं कि एक प्राचीन ग्रंथका भाषाके परिवनंन द्वाग (भाषाया: परिवर्तनेन) अनुवाद मात्र कर रहे है तब उनके द्वारा 'व्याभ्यास्यामि ममामेन' मा प्रतिजा-वाक्य नही बन सकता और न इलोकसंख्याका साथ देता हुमा 'शास्त्रस्य मनहरिम्वर' वाक्य ही बन सकता है / इमसे दोनों वाक्य मूलकार सवनन्दीक ही वाक्यों. के अनुवादितरूप जान पड़ते है / मिहमूरका इम ग्रन्यकी रचनामे केवल इतना ही सम्बन्ध है कि वे भाषाके परिवर्तन-द्वारा इसके रचयिता हैविषयके संकलनादिद्वारा नहीं -जैसाकि उन्होंने पन्तके चार पद्योंमेमे प्रथम पद्यमें सूचित किया है और ऐसा ही उनकी ग्रन्थ-प्रकृतिपरसे जाना जाता है। मालूम होता है प्रेमीजीने इन सब बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया और वे वैसे ही अपनी किसी धुन अथवा धारणाके पीछे युक्तियोंको तोड़-मरोड़ कर
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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