________________ 67 - तिलोयपणती और यतिवृषभ 'तियंक लोकविभाग' है और चतुर्विध देवोंका वर्णन भी है।" परन्तु “यह कहना" शब्दोंके द्वारा जिस वाक्यको मेरा वाक्य बतलाया गया है उसे मैंने कब और कहां कहा है ? मेरी प्रापत्ति तो तियंचोंके 14 भेदों के विस्तार कथन तक ही सीमित है और वह ग्रंथको देखकर ही की गई है, फिर उतने अंशों में ही मेरे कथनको न रखकर अतिरिक्त कथनके साथ उसे 'विचारणीय' प्रकट करना तथा ग्रंथमें तिर्यक्लोकविभाग' नामका भी एक मध्याय है ऐसी बात कहना, यह सब टलाने के सिवाय और कुछ भी अर्थ रखता हुमा मालूम नहीं होता / मैं पूछता हूँ क्या ग्रंथमें 'तियंक लोकविभाग' नामका छठा अध्याय होनेसे ही उसका यह अर्थ हो जाता है कि 'उसमें तियंचोंके 14 भेदोंका विस्तारके साथ वर्णन है ? यदि नहीं तो ऐसे समाधानसे क्या नतीजा? पौर वह टलानेकी बात नहीं तो और क्या है ? जान पड़ना है प्रेमीजी अपने उक्त समापनकी गहगई को समझते थेजानते थे कि वह मर एक प्रकारको खानापूरी ही है-और शायद यह भी अनुभव करने थे कि संस्कृत लोकविभागमें तिर्यचोंके 14 भेदोंका विस्तार नहीं है, और इसलिये उन्होंने परिशिष्टमें ही, एक कदम आगे, समाधानका एक दूसरा रूप अस्नियार किया है जो सब कल्पमात्मक, सन्देहात्मक एवं अनिर्णयात्मक है-और वह इस प्रकार है : "ऐसा मालूम होता है कि मवनन्दिका प्राकृत लोकविभाग बड़ा होगा। सिंहसरिने उसका संक्षेप किया है / 'व्याख्यास्यामि ममामेन' पदमे वे इस बातको स्पष्ट करते हैं। इसके मिवाय प्रागे 'शास्त्रस्य संग्रहस्त्विद' से भी यही ध्वनित होता है--संग्रहका भी एक. प्रथं संक्षेप होता है। जैसे गोम्मटसंगहमुन प्रादि / इसलिये यदि मस्कृत लोकविभागमें तियंचोंके 14 भेदोंका विस्तार नहीं, तो इससे यह भी तो कहा जा सकता है कि वह मूल प्राकृत ग्रन्थमें रहा होगा, सस्कृतमें संक्षेप करनेके कारण नही लिखा गया।" __इस समाधानके द्वारा प्रेमीजीने, संस्कृत लोकविभागमें तिथंचोंके 14 भेदोंका विस्तार कथन न होनेकी हालत में, अपने बचाव की प्रोर नियमसारकी उक्त गापामें सर्वनन्दीके लोकविभाग-विषयक उल्लेखको अपनी धारणाको बनाये रखने तथा दूसरों पर लादे रखनेकी एक सूरत निकाली है। परन्तु