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स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी तीनों थे २५५
ar रही रचनाशैली और विषयकी बात । इसमें किमीको विवाद नहीं कि 'देवागम' और 'रत्नकरण्ड' का विषय प्रायः अलग है एक मुख्यतया प्रातकी मीमांसको लिये हुए है तो दूसरा प्राप्तकयित श्रावकर्मके निर्देशको । विषयकी भिन्नता रचनाशैलीमें भिन्नताका होना स्वाभाविक है, फिर भी यह भिन्नता ऐसी नही जो एक साहित्यकी उत्तमता तथा दूसरेकी अनुत्तमना ( घटियापन )को यातन करती हो । रत्नकरण्डका साहित्य देवागमने जरा भी होन न होकर अपने विषयकी दृष्टिमे इतना प्रोट, सुन्दर जॅना तुला और अयंगौरवको लिये हुए है कि उसे मूत्रग्रन्थ कहने में जग भी सकोन नहीं होता । १२ श्रावावरजी जैसे प्रौढ विद्वानाने तो पनी धर्मामृनटीकामे उसे जगह-जगह 'ग्रागम' ग्रन्थ लिखा ही है और उसके वाक्योंको 'सूत्र' रूपमे उल्लेखित भी किया है - जैसा कि पीछे दिये हुए एक उद्धरण प्रकट है।
और यदि रचनाशैनीमे प्रमीजीका अभिप्राय उस तर्कपद्धति में है जिसे a darrafts प्रधान ग्रन्थोंमें देख रहे है और समझते हैं कि 'रत्नकरण्ड' भी उसी में राहुधा होना चाहिये था तो वह उनकी भारी भूल है । और तब मुझे कहना होगा कि उन्होंने श्रावकाचार-विययक जैनमाहित्यका कालक्रममे अथवा ऐतिहासिक दृष्टि अवलोकन नहीं किया धार न देश तथा समाजकी तात्कालिक स्थिनियर हो कुछ गम्भीर विचार किया है। यदि ऐसा होता तो उन्हें मालूम हो जाता कि उस तक स्वामी समन्तभद्रक समयमे और उससे भी गहने धावक मांग प्रायः साधु-मुखा हुआ करते थे उन्हें स्वतन्त्ररूप प्रत्याको अध्ययन करके अपने मार्गका निश्चय करनेकी जरूरत नहीं होती थी; बल्कि माधु प्रथवा मुनिजन ही उस वक्त, धर्मविपयमे, उनके एकमात्र पथप्रदर्शक होते थे। उस समय मुनिजनोकी स्वामी बहुलता थी और उनका प्राय: हर वक्त मत्समागम बना रहता था। इसमें गृहस्थ लोग धर्मrari लिये उन्होंके पास जाया करते थे और धर्मकी व्याख्याको सुनकर उन्हीसे अपने लिये कभी कोई व्रत, किमी बास वन अथवा वनममूहकी याचना किया करते थे । साजन भी resist उनके यथेष्ट adornर्मका उपदेश देते थे, उनके afer are afe उचित समझते तो उसकी गुरुमन्त्र-पूर्वक उन्हें दीक्षा देते थे और यदि उनकी शक्ति तथा स्थितिके योग्य उसे नहीं पाते थे तो उसका निषेध