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________________ २५६ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश " कर देते थे। साथ ही, जिस व्रतका उनके लिये निर्देश करते थे उसके विधिfवधानको भी उनकी योग्यताके अनुकूल नियंत्रित कर देते थे। इस तरहपर गुरुजनोंके द्वारा धर्मोपदेशको सुनकर धर्मानुष्ठानकी जो कुछ शिक्षा गृहस्थोंको मिलती थी उसीके अनुसार चलना वे अपना धर्म - अपना कर्तव्यकर्म - समझते थे, उसमें 'चूँ चरा' (किं, कथमित्यादि) करना उन्हें नही आता था; अथवा यों कहिये कि उनकी श्रद्धा और भक्ति उन्हें उस ओर (संशयमार्ग की तरफ़ ) जाने हो न देती थी । श्रावकोंमें सर्वत्र प्रज्ञा-प्रधानताका साम्राज्य स्थापित था और अपनी इस प्रवृत्ति तथा परिणतिके कारण ही वे लोग 'श्रावक' तथा 'श्राद्ध' कहलाते थे । उस वक्त तक श्रावकधर्ममें अथवा स्वाचार- विषयपर श्रावकोमें तर्कका प्राय. प्रवेश ही नहीं हुआ था और न नाना आचार्यों का परस्पर इतना मतभेद ही हो पाया था जिसकी व्याख्या करने अथवा जिसका सामजस्य स्थापित करने प्रादिके लिये किसीको तर्कपद्धतिका प्राश्रय लेनेकी ज़रूरत पड़ती। उस वक्त तर्कका प्रयोग प्राय: स्व-परमलके विचारों सिद्धांतों तथा प्राप्तादि विवादग्रस्त विषयोंपर ही होता था । वे ही नर्ककी कसौटीपर चढ़े हुए थे- उन्ही की परीक्षा तथा निर्णयादिके लिये उसका सारा प्रयास था । और इसलिये उस वक्तके जो तर्कप्रधान ग्रंथ पाये जाते हैं वे प्रायः उन्ही विषयोंकी चर्चाको लिये हुए हैं । जहाँ विवाद नहीं होता वहाँ तर्कका काम भी नहीं होता । इमीसे छन्द, अलंकार, काव्य, कोश, व्याकरण, वैद्यक, ज्योतिपादि दूसरे कितने ही विषयोंके ग्रंथ तर्कपद्धतिसे प्रायः शून्य पाये जाते हैं। खुद स्वामी समन्तभद्रका 'जिनशतक' नामक ग्रंथ भी इसी कोटिमें स्थित हैस्वामी द्वारा निर्मित होनेपर भी उसमें 'देवागम' जैसी तर्कप्रधानता नही पाई जाती- वह एक कठिन, शब्दालङ्कार- प्रधान ग्रंथ है और प्राचार्य महोदयके पूर्व काव्यकौशल, प्रद्भुत व्याकरण- पांडित्य और अद्वितीय शब्दाधिपत्यको * " शृणोति गुर्वादिभ्यो धर्ममिति श्रावक: “श्राद्धः श्रद्धासमन्विते" " - सा० धर्मामृतटीका श्रीधर, हेमचन्द्र"
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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