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________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा और स्वामिकुमार 465 465 को एक बतलाकर यह कहा जाता है और प्रामतौर पर माना जाता है कि यह कार्तिकेयानुप्रेक्षा उन्हीं स्वामी कार्तिकेयकी बनाई हुई है जो कौंच राजाके उपमर्गको समभावमे महकर देवलोक पधारे थे, और इमलिये इस ग्रन्यका रचनाकाल भगवती पागधना तथा श्री कुन्दकुन्दकं ग्रंथोंमे भी पहले का हैभले ही इस ग्रंथ तथा भ० पाराधनाकी उक्न गाथामें कार्तिकेयका स्पष्ट नामोल्लेख न हो पोर न कथामें इनकी इस ग्रंथरचना का ही कोई उल्लेख हो। परन्तु डाक्टर न. उपाध्ये मo To कोल्हापुर इम मतम महमत नहीं है / यद्यपि वे अभी तक इम ग्रयके का और उसके निर्माणकालके मम्बन्ध में अपना कोई निस्निन एकमत स्थिर नहीं कर सके फिर भी उनका इतना कहना है कि यह प्रय उतना (विक्रम दोमो या तीनमो वर्ष परका ) प्राचीन नही है जिनना कि दनकथाग्रीवे. प्राधार पर माना जाता है. जिन्नान ग्रंथकार कुमार के व्यक्तित्वका अन्धकार में डाल दिया है और हमके मुभ्र दो कारण दिये है. जिन का मार इस प्रकार है:(१) कुमारका धनुप्रेक्षा ग्रंथ में बारह भावना ग्रीकी गणनाका जो क्रम वह यह नही है जो कि वटकर, शिवाय पोर कुन्दकुन्द के ग्रन्यों (मूनाचार. भ० प्रागमन ना बाग्म प्रगुपकवा) में पाला जाता है, बल्कि उसमे र मित्र व बारा मावनिक नवा मूत्रमें उपलब्ध होता है। (2) कुमारको यह अनुप्रेक्षा अपभ्रंश मायाम नहीं लिखी गई, फिर भी उमी 29 वी गाथाम लिमुगहि पोर 'भावनि ( Prerably हि ) ये प्राध के दो पद पाया है जो कि वनमान काल तृतीय पुरुष बहुवचनके है / यह पाया जाइन्द ( योगीन्द) के योगमारके ६५वे दाह के साथ मिनती जलनी है.. एक ही मायनो लिया है और उन दोहे परमे परितिन करके सी गई है। परिवानादिका यह कार्य किमी बादके प्रति लेखक +1: मालालजी चाकरीवाल को प्रस्तावना पृ: / Cataloguc of SK, ind PK, Manuscrips, in the C. P. and Berar p. XIV; 791 Winterniir. Allistery of Indian Literaunt, Tol. Ip.57
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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