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१३६ जैमसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
(५) चौथे अध्यायमें लोकान्तिक देवोंका निवासस्थान 'ब्रह्मलोक' नामका पांचवां स्वर्ग बतलाया गया है और 'ब्रह्मलोकालया लोकान्तिका.' इस २५वें सूत्रके निम्न भाष्यमें यह स्पष्ट निर्देश किया गया है कि ब्रह्मलोक में रहने वाले ही लोकान्तिक होते हैं-अन्य स्वर्गों में या उनसे परे-अवेयकादिमें लोकान्तिक नहीं होते"ब्रह्मलोकालया एव लोकान्तिका भवन्ति नान्यकल्पेषु नापि
परतः।" ब्रह्मलोकमें रहने वाले देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति दस सागरकी, और जघन्य स्थिति सातसागरसे कुछ अधिकको वतलाई गई, जैसा कि सूत्र नं. ३७ और ४२ और उनके निम्न भाष्यांशोंसे प्रकट है
'ब्रह्मलोके त्रिभिरधिकानि सप्तदशेत्यर्थः ।"
"माहेन्द्र परा स्थितिविशेषाधिकानि सप्त सागरोपमाणि सा ब्रह्मलोके जघन्या भवति । ब्रह्मलोके दशसागरोपमाणि परा स्थितिः सा लान्तवे जघन्या।'
इसमे स्पष्ट है कि मत्र तथा भाष्यके अनुसार लोकान्तिक देवोंकी उत्कृष्ट आयु दस मागरकी और जघन्य आयु मात मागरमे कुछ अधिक की होती हैं; क्योंकि लोकान्तिक देवोंकी आयुका अलग निर्देश करने वाला कोई विशप सूत्र भी श्वे० सत्रपाठमें नहीं है। परन्तु वे० प्रागम में लोकान्तिक देवोंकी उत्कृष्ट और जघन्य दोनों ही प्रकारकी यायु की स्थिति प्राट मागरकी बनलाई है जैसाकि 'स्थानांग' और 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' के निम्न सूत्रमे प्रकट है
"लोगतिकदेवाणं जहएणमुक्कासणं अट्ठसागरोवमाई ठिती पएगात्ता ।"-स्था० स्थान ८ सू. ६२३ व्या, श० ६ उ०५
ऐसी हालतमें मूत्र और भाप्य दोनों का,कथन श्वे० प्रागमके माथ मंगत न होकर स्पष्ट विरोधको लिये हुए है। दिगम्बर प्रागमके साथ भी उमका कोई मेल नहीं है; क्यों कि दिगम्बर सम्प्रदायमें भी लोकान्तिक देवोंकी उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति आठ सागरकी मानी है और इसीसे दिगम्बर सत्रपाटमें