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श्वे० तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जॉच
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"से किं तं अगुगमे ? नवविहे पण्णत्ते । तं जहा - संतपय परुवरण्या १ दव्यमाणं च २ खित्त ३ फुसरणा य ४ कालो य५ अंतर ६ भाग ७ भाव ८ अप्पाबहु ६ चेव ।" (अनु० सूत्र ८० )
इससे स्पष्ट है कि उक्त सूत्र और भाष्यका कथन श्वेताम्बर ग्रागमके साथ संगत नहीं है । वास्तवमें यह दिगम्बरसूत्र है; दिगम्बरसूत्र पाठमें भी इसी तरहसे स्थित है और इसका आधार षटखण्डागमके प्रथमखण्ड जीवट्टारणके निम्न तीन सूत्र हैं
"एदेसि चोद्दसहं जीवसमासाणं परूवणट्ठदाए तत्थ इमाणि अट्ठ अणियोगद्दाराणि गायव्वाणि भवंति || ५ || तं जहा || ६ ||
संतपरूवणा दव्वपमाणागमो खेत्तागुगमो फासणागुगमो कालागुगमो अंतरागुगमो भावानुगमो अप्पात्रहुगागमो चेदि ||७|| षट्खण्डागममें और भी ऐसे अनेक सूत्र हैं जिनमे इन सत् श्रादि आठ अनुयोगद्वारोंका समर्थन होता है ।
(४) ३० सूत्रपाठ द्वितीय अध्याय में 'निवृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्' नामका जो १७ वां सूत्र है उसके भाष्यमें ' उपकरणं बाह्याभ्यन्तरं च' इस वाक्यके द्वारा उपकरणके बाह्य और अभ्यन्तर ऐसे दो भेद किये गये हैं; परन्तु श्वे० प्रागममें उपकरण के ये दो भेद नहीं माने गये हैं । इसीमे सिद्धसेन गरणी अपनी टीकामें लिखते हैं
" श्रागमे तु नास्ति कश्चिदन्तर्बहिर्भेद् उपकरणस्येत्या चार्यस्यैव कुतोऽपि सम्प्रदाय इति । "
अर्थात् प्रागममें तो उपकरणका कोई अन्तर - बाह्यभेद नहीं है । प्राचार्यका ही यह कहीसे भी कोई सम्प्रदाय है— भाष्यकारने ही किसी सम्प्रदायविशेषकी मान्यतापरमे इसे अंगीकार किया है ।
इससे दो बातें स्पष्ट हैं- एक तो यह कि भाष्यका उक्त वाक्य श्वे० श्रागमके साथ संगत नहीं है, और दूसरी यह कि भाष्यकारने दूसरे सम्प्रदायकी बातको
अपनाया है । वह दूसरा ( श्वेताम्बरभिन्न) सम्प्रदाय दिगम्बर हो सकता है । दिगम्बर सम्प्रदाय में सर्वत्र उपकरणके दो भेद माने भी गये हैं ।