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तत्वाधिगमसूत्रकी एक सटिप्पण प्रति
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- इससे टिप्परकारका यह हेतु कुछ विचित्रसा ही जान पड़ता है। दूसरे प्रसिद्ध श्वेताम्बराचार्योने भी उक्त 'धर्मावंशा' नामक सूत्र को नहीं माना है, और इसलिये यह वाक्य कुछ उन्हें भी लक्ष्य करके कहा गया है। तीसरे वाक्य में उन श्रचायक 'जडबुद्धि' ठहराया है जो "सद्विविधः" इत्यादि सूत्रोंको नहीं मानते हैं !! यहां 'प्रादि' शब्दका अभिप्राय 'अनादिरादिमांश्च' 'रूपिष्वादिमान,' 'योगोपयोगी जीवंषु' इन तीन सूत्रोंसे है जिन्हें 'सद्विविधः ' सूत्र सहित दिगम्वराचार्य सूत्रकारकी कृति नहीं मानते हैं । परन्तु इन चार सूत्रों में 'सद्विविधः' सूत्रको तो दूसरे श्वेताम्बराचार्योंने भी नहीं माना है । और इसलिये कस्मात् 'जडा' पदका वे भी निशाना वन गये हैं ! उन पर भी बुद्धि होने का आरोप लगा दिया गया है !!
इसमें श्वेताम्बरोंमें भाग्य-मान्य-सूत्रपाठका विषय और भी अधिक विवादापन्न हो जाता है और यह निश्चितरूपमे नही कहा जा सकता कि उसका पूर्ण एवं यथार्थ रूप क्या है। जब कि सर्वार्थसिद्धि-मान्य सूत्रपाठ के विषय में दिगम्वराचायोमे परस्पर कोई मतभेद नहीं है । यदि दिगम्बर सम्प्रदायमे सर्वार्थसिद्धिसे पहले भाग्यमान्य अथवा कोई दूसरा सूत्रपाठ म्ह हुआ होता और सर्वार्थसिद्धिकार ( श्री पूज्यपादाचार्य ) ने उसमें कुछ उलटफेर किया होता तो यह सम्भव नहीं था कि दिगम्बर यात्रायमि सूत्रपाठ सम्बन्धमें परस्पर कोई मतभेद न होता । श्वेताम्बरांमं भयमान्य पाठके विषय में मतभेदका होना बहुधा भाव्य पहले किसी दूसरे सुत्रपाटके अस्तित्व ग्रथवा प्रचलित होने को सूचित करता है ।
(५) दसवे अध्यायके एक दिगम्बर नुत्रके सम्बन्ध मे टिप्परगकारने इस प्रकार लिखा है
"केचित्तु 'आविद्धकुलाल चक्रवव्यपगतले पालांबुवदेरण्डबीजवदग्निशिखावच' इति नव्यं सूत्रं प्रक्षिपन्ति तन्न सूत्रकारकृतिः, 'कुलालचक्रे दोलायामिपौ चापि यथेष्यते' इत्यादिश्लोकैः सिद्धस्य गतिस्वरूपं प्रोक्त मेव, ततः पाठान्तरमपार्थं ।"
अर्थात् — कुछ लोग 'आविद्धकुलालचक्र' नामका नया सूत्र प्रक्षिप्त करते हैं, - वह मूत्रकारकी कृति नही है । क्योंकि 'कुलालचक्रे दोलायामिपौ चापि यथे