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________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा और स्वामिकुमार जाता है तथा कार्तिकेयानुप्रेक्षा जैसे नामोंसे इमकी मर्वत्र प्रसिद्धि है / परन्तु ग्रंथभरमें कहीं भी ग्रंथकारका नाम कार्तिकेय नहीं दिया और न ग्रंथको कातिकयानुप्रेक्षा अथवा स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा जैसे नामसे उल्लेखित ही किया है। प्रत्युत इसके, प्रतिज्ञा मोर ममाप्ति-वाक्योंमें ग्रन्थका नाम ममान्यत: 'प्रगुपेहा' या 'मणुपेक्खा' (अनुप्रेक्षा) पौर विशेषत: 'बारमप्रणुदेवखा दिया है / बन्दकुन्द. के इस विषयक ग्रंथका नाम भी 'वारस अणुपेवावा' है। तब 'कानिकयानुयक्षा' यह नाम किसने और कब दिया, यह अनुमन्धानका विषय है / ग्रंथपर एकमात्र संस्कृत टीका जो उपलब्ध है वह भट्टारक गृभचन्द्रकी है और विक्रम संवत् 1613 में बनकर ममाप्त हुई है / इस टीकामें प्रनक स्थानों पर ग्रंयका नाम 'कार्तिकेयानुप्रंक्षा' दिया है और ग्रंथवार का नाम 'कातिकेय' मुनि प्रकट किया है तथा कुमारका प्रथ' भी पाति कय बतलाया है। इसमे मंभव है कि शुभचन्द्र भट्टायके द्वारा ही यह नामकरण किया गया -टीकामे पूर्वके उपलब्ध साहित्यमें ग्रन्यकाररूपमें इम नामको उपलब्धि भी नहीं होती। __ 'कोण जी गनप्पलियादि गाथा नं. 118 को टोकामें निमन समाको उत्साहत करने हा घोर उपमोको महन करनेवाले मनजनोके कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये गये है. बिनमें सक उदाहरण कार्तिकेय मुनिका भी निम्न प्रकार है बोनस प्रहाम्रो (गा०): बाग प्रावधानो भगिया इ जिग्गागमा मारेरण (गा. 880) / * यथा -(1) कार्तिक यानुप्राकाष्टीया व माश्रये / (पादिमान) (2) कातिक यानुप्रक्षाया निविचिना वग (प्रशस्ति :) (:) म्यामिवानिके यो मुनी यो अनुप्रेक्षा पायात काम: नगामन-मंगलावामि-लक्षण-[मगन] मानाटं / ( गा ) (4) केन निनः स्वामिकुमारगण भयवर-पुरीक श्रीस्वामि कातिकेयमुनिना प्राममधीलधारिणा अनुप्रेक्षा: रविता. / (गा० 487) (5) मह श्रीकातिकेयमाधुः मम्नुवे (486) देहली नयामन्दिर प्रति, वि० संवत् 1806)
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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