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________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा और स्वामिकुमार यह अनुप्रेक्षा अध्र वादि बारह भावना प्रोपर, जिन्हें भव्यजनोंके लिये पानन्दकी जननी लिखा है (गा० 1). एक बरा ही मुन्दर, मरल तथा मार्मिक पथ है और 486 गाथामन्याको लिये हुए है / इसके उपदेश हे ही हृदय. ग्राही है, उक्तियाँ अन्तरवलको स्पर्श करती है और इमीमे यह जैन समाजमें मवत्र प्रचलित है तथा बरे ही मादर एव प्रेमको दृष्टिम देखा जाता है। इसके कर्ता ग्रंथकी निम्न गाथा 10 487 के प्रनमार स्वामिकुमार' है, जिन्होंने जिनवचनको भावनाके लिये पोर चचल मनको गोकने के लिये परमश्रद्धाके माय इन भावनामोंकी रचना की है. जिग्ण-ययण-भावगट्ठ सामिकुमारण रममताए। रड्या अपेक्वानो चंचलमण-कभा च / / 'कुमार' शन्न पृष, बालक, राजकुमार, युवराज, प्रविवाहित, ब्रह्मचारी प्रादि प्रोंके माय 'कानिकय' प्रयमे भी प्रयुक्त होता है, जिसका एक पाशय कृतिकाका पुत्र है और दूमग प्राशय हिन्दप्रोंका वह परानन देवना है जो शिवजीके उम बोयं में उत्पन्न मा था जो पहले अग्निदेवनाको प्राप्त हमा, अग्निमें गंगामें स्नान करती हुई छाकृनिकायोक गर्गग्मे प्रविष्ट हमा. जिसमें उन्होंने एक एक पुत्र प्रमव किया मोर वे छहों पुत्र बारको विचित्र रूपमें मिकर एक पुत्र कात्रिय हो गा, जिसके छह मुख और 1 भुना नया 12 मंत्र बतलाये जाते है / और जो इमी शिवपुष, अग्निपुत्र, गगापुत्र तथा कृतिका प्रादिका पुत्र कहा जाता है। कुमारके इस कार्तिकेय प्रर्थको कर ही यह मन्प स्ममिकार्तिकेय कृत का
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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