________________ 782 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश (6) अनन्तरपाद-मुरजवन्धः अभिषिक्तः सुरैलोकैस्त्रिभिभक्तः परैर्न कैः / / वासुपूज्य मयीशेशस्त्वं सुपूज्यः कयीदृशः / / 8 / / म मि इस चित्रमें श्लोकका एक चरणा अपने उत्तरवर्ती चरणके साथ मुरजबन्धको लिये हुए है / ऐसे दूसरे श्लोक नं. 64, 66. 100 पर स्थित है। (7) यथेकाक्षगन्तरित-मुरजबन्धः क्रमतामक्रम क्षेमं धीमतामय॑मश्रमम् / * श्रीमद्विमलमर्चेमं वामकामं नम तमम् // 50 // - - - मुरजबन्धके इस चित्रमें ऊपरके चित्रसे यह विशेषता है कि इसमें अपना इष्ट प्रक्षर (म) एक एक अक्षरके अन्तरसे परके चारों ही परणोंमें बराबर