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जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
अनुसंधानको लिये हुए एक विस्तृत आलोचनात्मक निबन्धमें अच्छे ऊहापोह अथवा विवेचनके साथ ही दिखलाई जानेके योग्य हैं ।
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देशकालकी परिस्थिति
देश-कालकी जिस परिस्थितिने महावीर भगवानको उत्पन्न किया उसके सम्बन्धमें भी दो शब्द कह देना यहाँ पर उचित जान पड़ता है । महावीर भगवान् के अवतारसे पहले देशका वातावरण बहुत ही क्षुब्ध, पीड़ित तथा संत्रस्त हो रहा था, दीन-दुर्बल खूब सताए जाते थे; ऊँच-नीचकी भावनाएं जोरों पर थीं; शूद्रोंसे पशुओं जैसा व्यवहार होता था, उन्हें कोई सम्मान या अधिकार प्राप्त नहीं था, वे शिक्षा-दीक्षा और उच्चसंस्कृतिके अधिकारी ही नहीं माने जाते थे और उनके विषय में बहुत ही निर्दय तथा घातक नियम प्रचलित थे; स्त्रियाँ भी काफी तौर पर सताई जाती थीं, उच्चशिक्षासे वंचित रक्खी जाती थीं, उनके विषय में "न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति " ( स्त्री स्वतन्त्रताकी अधिकारिणी नहीं ) जैसी कठोर आज्ञाएं जारी थीं और उन्हें यथेष्ट मानवी अधिकार प्राप्त नही थेबहुतों की दृष्टि तो वे केवल भोगकी वस्तु, विलास की चीज़, पुरुषकी सम्पत्ति अथवा बच्चा जनने की मशीनमात्र रह गई थीं; ब्राह्मणोंने धर्मानुष्ठान आदिके सब ऊँचे ऊँचे अधिकार अपने लिए रिजर्व रख छोड़े थे- दूसरे लोगों को वे उनका पात्र ही नहीं समझते थे - सर्वत्र उन्हीकी तूती बोलती थी, शासनविभागमें भी उन्होंने अपने लिए खास रिश्रायतें प्राप्त कर रक्खी थीं- घोरसे घोर पाप और बड़ेसे बड़ा अपराध कर लेने पर भी उन्हें प्रारणदण्ड नहीं दिया जाता था, जब कि दूसरोको एक साधारणसे अपराधपर भी सूली - फॉसीपर चढ़ा दिया जाता था; ब्राह्मणोंके बिगड़े तथा सड़े हुए जाति-भेदकी दुर्गन्धसे देशका प्रारण घुट रहा था श्रीर उसका विकास रुक रहा था, खुद उनके अभिमान तथा जाति-मदने उन्हें पतित कर दिया था और उनमें लोभ-लालच, दंभ, अज्ञानता, अकर्मण्यता, क्रूरता तथा घूर्ततादि दुर्गुणों का निवास हो गया था; वे रिश्वतें अथवा दक्षिणाएँ लेकर परलोक के लिए सर्टिफ़िकेट श्रौर पर्वाने तक देने लगे थे; धर्म की असली भावनाएं प्रायः लुप्त हो गई थीं और उनका स्थान अर्थ-हीन क्रियाकाण्डों तथा थोथे विधि-विधानोंने ले लिया था; बहुतसे देवी-देवताओंकी कल्पना प्रबल हो उठी
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