________________ 364 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश इन जीवनोपायरूप षट् कर्मोको नहीं जानते थे ), मुमुक्षु होकर और ममता छोड़कर वधू तथा वसुधाका त्याग करते हुए दीक्षा धारण की थी, अपने दोर्षोंके मूलकारण (घातिकर्मचतुष्क ) को अपने ही समाधितेज-द्वारा भस्म किया था (फलतः विश्वचक्षुता एवं सर्वज्ञताको प्राप्त किया था) और जगतको तत्वका उपदेश दिया था। वे सत्पुरुषोंसे पूजित होकर पन्तको ब्रह्मपदरूप प्रमृतके स्वामी बने ये भोर निरंजन पदको प्राप्त हुए थे। (2) अजितजिन देवलोकसे अवतरित हुए थे, अवतारके समयसे उनका बंधुवर्ग पृथ्वीपर अजेयशक्ति बना था / और उस बन्धुवर्गने उनका नाम 'अजित रक्खा था / आज भी (लाखों वर्ष बीत जानेपर) उनका नाम स्वसिद्धिकी कामना रखनेवालोंके द्वारा मंगलके लिये लिया जाता है। वे महामुनि बनकर तथा घनोपदेहसे (घातिया कर्मोके प्रावरणादिरूप दृढ उपलेपसे) मुक्त होकर भन्यजीवोंके हृदयोंमें संलग्न हुए कलंकों ( अज्ञानादिदोष तथा उनके कारणों) की शान्तिके लिए अपनी समर्थ-वचनादि-शक्तिकी सम्पत्तिके साथ उसी प्रकार उदयको प्राप्त हुए थे जिस प्रकार कि मेघों के प्रावरणसे मुक्त हुमा सूर्य कमलोंके अभ्युदयके लिये-उनके अन्त: अन्धकारको दूर कर उन्हें विकसित करने के लिये-अपनी प्रकाशमय समर्थशक्ति-सम्पत्तिके साथ प्रकट होता है / और उन्होंने उस महान् एवं ज्येष्ठ धर्मतीर्थका प्रणयन किया था जिसे प्राप्त होकर लौकिक जन दुःखपर विजय प्राप्त करते हैं / (3) शम्भव-जिन इस लोकमें तृष्णा-रोगोंसे संतप्त जनसमूहके लिए एक माकस्मिक वैद्यके रूपमें प्रवतीर्ण हुए थे और उन्होंने दोष-दूषित एवं प्रपीडित जगतको अपने उपदेशों-द्वारा निरंजना शान्तिकी प्राप्ति कराई थी। पापके उपदेशका कुछ नमूना दो एक पद्योंमें दिया है और फिर लिखा है कि 'उन पुण्यकीर्तिकी स्तुति करने में शक (इन्द्र ) भी असमर्थ रहा है। (4) अभिनन्दन-जिनने ( लौकिक वधूका त्याग कर ) उस दयावको अपने माश्रयमें लिया था जिसकी सखी क्षमा थी पौर समाधिकी सिद्धिके लिए बाह्याऽभ्यन्तर दोनों प्रकारके परिग्रहका त्याग कर निर्ग्रन्यताको धारण किया था। साथ ही, मिष्याभिनिवेशके वशसे नष्ट होते हुए जगतको हितका उपदेष