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________________ . . . समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 365 देकर तत्वका ग्रहण कराया था। हितका जो उपदेश दिया गया था उसका कुछ नमूना 3-4 पद्योंमें व्यक्त किया गया है। (5) सुमति-जिनने जिस सुयुक्ति-नीत तत्त्वका प्रणयन किया है उसीका सुन्दर सार इस स्तवनमें दिया गया है। (6) पपप्रम-जिन पद्मपत्रके समान रक्तवर्णाभ शरीरके चारक थे / उनके शरीरकी किरणों के प्रसारने नरों और अमरोंसे पूर्ण सभाको व्याप्त किया था-सारी समवसरणसभामें उनके शरीरकी प्रामा फैली हुई थी। प्रजाजनोंकी विभूतिके -लिये-उनमें हेयोपादेयके विवेकको जागृत करने के लिये उन्होंने भूतलपर विहार किया था और विहारके समय ( इन्द्रादिरबिन ) महस्रदल-कमलों. के मध्यभागपर चलते हुए अपने चरण-कमलों द्वारा नभस्नलको पल्लवमय बना दिया था। उनकी स्तुतिमें इन्द्र असमर्थ रहा है। (7) मुपाश्व-जिन सर्वतत्त्वके प्रमाता ( ज्ञाता) और माताकी तरह लोकहितके अनुशास्ता थे। उन्होंने हितकी जो बातें कही है उन्होंका सार इस स्तवन में दिया गया है। (8) चन्द्रप्रभ-जिन चन्द्रकिरण-सम-गौरवणं थे, द्वितीय चन्द्रमाको समान दीप्तिमान थे। उनके शरीरके दिव्य प्रभामण्डलसे बाह्य अन्धकार और ध्यान. प्रदीपके प्रतिभयसे मानस अन्धकार दूर हुआ था। उनके प्रवचनम्प मिहनादोंको सुनकर अपने पक्षकी सुस्थितिका घमण्ड रखने वाले प्रवादिजन निर्मद हो जाते / और वे लोकमें परमेष्ठिके पदको प्राप्त हुए है। (8) सुविधि-जिन जगदीश्वरों ( इन्द्र-चक्रवादिकों) के द्वारा अभिवन्ध थे। उन्होंने जिस अनेकान्तशासनका प्रणयन किया है उसका मार पांचों पचोंमें दिया है। (10) शीतल-जिनने अपने सुखाभिलाषारूप अग्निके दाहसे मूर्छित हुए मनको कैसे मूर्छा-रहित किया और कैसे वे दिन-रात प्रात्मविशुद्धिके मार्गमें जागृत रहते थे, इन बातोंको बतलानेके वाद उनके तपस्याके उद्देश्य और व्यक्तित्वकी दूसरे तपस्वियों प्रादिसे तुलना करते हुए लिखा है कि 'इसीसे वे बुधजनश्रेष्ठ मापकी उपासना करते है जो अपने प्रात्मकल्याणकी भावनामें सत्पर है।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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