________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 13 द्वितीयादि विभक्तियों और बहुवचनादिके रूपमें हुमा है उन्हें अर्थावबोधकी सुविधा एवं एकरूपताकी दृष्टिसे यहां प्रथमाके एक वचनमें ही रक्खा गया है, साथमें स्थान-सूचक्र पद्याडू भी पद्य-सम्बन्धी विशेषणों के अन्तमें दे दिये गये हैं। और जो एक विशेषण अनेक स्तवनोंमें प्रयुक्त हुमा है उसे एक ही जगह-प्रथम प्रयोगके स्थानपर-ग्रहण किया गया है, अन्यत्र प्रयोगकी सूचना उसके मागे ब्रेकटके भीतर पद्याङ्क देकर कर दी गई है: (1) स्वम्भूः, भूतहित :, समञ्जस-ज्ञान-विभूति-चक्षुः, तमो विधुन्वन् 1; प्रबुद्धतत्त्वः, अद्भनोदयः, विदांवरः 2; मुमुक्षः (88), आत्मवान् (82), प्रभुः ( 20, 28,66), सहिष्णुः, पच्युतः 3; ब्रह्मपदामृतेश्वरः 4; विश्वचक्षुः, वृषभः, सतामचितः, समग्रविद्यात्मवपुः, निरञ्जनः, जिन: ( 36, 45, 50, 51, 57, 80, 81, 112, 114, 130, 137, 141 ), अजित-शुल्लकवादि-गासनः 5 / (2) अजितशासनः, प्रणेता 7; महामुनि: (70) मुक्तघनोपदेहः 8; पृथुज्येष्ठ-धर्मतीर्थ-प्रणेता 6; ब्रह्मनिष्ठः, सम-मित्र-शत्रुः, विद्या-विनिर्वान्त-कषायदोपः लब्धात्म-लक्ष्मीः, अजितः, अजितात्मा, भगवान् ( 18, 31 40, 66, 80, 117, 121) 10 / (3) शम्भवः, पाकस्मिकवद्यः 11; स्याद्वादी, नाथ: (25, 57, 75, 66, 126 ), शास्ता 14: पुण्यकीति: (87), प्राय: (48, 68) 15 / (4) अभिनन्दनः, समाधितन्त्र: 16; सतां गतिः 20 / (5) मुमतिः, मुनिः (46, 61, 74, 76 ) 21 / (6) पद्मप्रभः, पद्मालयालिङ्गित-चारसूतिः, भव्यपयोरुहारणां पद्मबन्धुः 26; विभुक्तः, 27; पातित-मार-दर्पः 26; गुणाम्बुधिः प्रजः (50,85), ऋषि: (60, 121) 30 / __ (7) सुपार्श्वः 31; सर्व-तत्त्व-प्रमाता, हितानुशास्ता, गुणावलोकस्य जनस्य नेता 35 / (8) चन्द्रप्रभः, चन्द्रमरीचि-गौरः, महतामभिवन्द्यः, ऋषीन्द्रः, जितस्वान्तकषाय-बन्धः 36; सर्वलोक-परमेष्ठी, अद्भुत-कर्म-तेजाः, अनन्तधामाऽक्षर-विश्व