________________ -- 372 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश _ स्तवनोंके इस परिचय-समुच्चय-परसे यह साफ़ जाना जाता है कि सभी जैन तीर्थकर स्वावलम्बी हुए है / उन्होंने अपने प्रात्मदोषों और उनके कारणों. को स्वयं समझा है , पोर समझकर अपने ही पुरुषार्थसे-अपने ही ज्ञानबल और योगबलसे-उन्हें दूर एवं निर्मूल किया है। अपने प्रात्मदोंषोंको स्वयं दूर तथा निर्मूलकरके और इस तरह अपना प्रात्म-विकास स्वयं सिद्ध करके वे मोह, माया, ममता और तृष्णादिसे रहित 'स्वयम्भू' बने है-पूर्ण दर्शन ज्ञान एवं सुख-शक्तिको लिये हुए 'महत्पदको' प्राप्त हुए हैं। और इस पदको प्राप्त करनेके बाद ही वे दूसरोंको उपदेश देने में प्रवृत्त हुए हैं। उपदेशके लिये परमकरुणा-भावसे प्रेरित होकर उन्होंने जगह-जगह विहार किया है और उस बिहारके अवसर पर उनके उपदेशके लिये बड़ी बड़ी सभाएं जुड़ी हैं, जिन्हें 'समवसरण' कहा जाता है। उन सबका उपदेश, शासन अथवा प्रवचन अनेकान्त और अहिंसाके प्राधारपर प्रतिष्ठित था और इसलिये यथार्थ वस्तुतत्वके अनुकूल और सबके लिये हितरूप होता था। उन उपदेशोंसे विश्वमें तत्त्वज्ञानकी जो धारा प्रवाहित हुई है उसके ठीक सम्पर्क में आनेवाले असंख्य प्राणियोंके मज्ञान तथा पापमल धुल गए हैं और उनकी भूल-भ्रांतियां मिटकर तथा असत्यप्रवृत्तियां दूर होकर उन्हें यथेष्ट सुख-शान्तिको प्राप्ति हुई है। उन प्रवचनोंसे ही उस समय सत्तीर्षकी स्थापना हुई है और वे संसारसमुद्र अथवा दुःखसागरसे पार उतारनेके साधन बने हैं। उन्हींके कारण उनके उपदेष्टा 'तीर्थङ्कर' कहलाते हैं और वे लोकमें सातिशय-पूजाको प्राप्त हुए है तथा प्राज भी उन गुणज्ञों और अपना हित चाहनेवालोंके द्वारा पूजे जाते हैं जिन्हें उनका यथेष्ट परिचय प्राप्त है। अर्हद्विशेषण-पद-- स्वामी समन्तभद्रने, अपने इसस्तोत्रमें तीर्थर प्रहन्तोंके लिये जिन विशेषणपदोंका प्रयोग किया है उनसे प्रहस्स्वरूपपर अच्छा प्रकाश पड़ता है और वह नय-विवक्षाके साथ अर्थपर दृष्टि रखते हुए उनका पाठ करनेपर सहजमें ही अवगत हो जाता है। अत: वहां पर उन विशेषणपदोंका स्तवनक्रमसे एकत्र संग्रह किया जाता है / जिन पदों का मूलप्रयोग सम्बोधन तथा