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________________ समन्तभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल सम्पूर्ण भोजनकी समाप्तिको देखकर राजाको बड़ा ही पाश्चर्य हुा । अगले दिन उसने और भी अधिक भक्ति के साथ उत्तम भोजन भेंट किया; परन्तु पहले दिन प्रचुर परिमाणमें तृप्तिपर्यन्तभोजन कर लेनेके कारण जठराग्निके कुछ उपशांत होनेमे, उम दिन एक चौथाई भोजन बच गया, और तीसरे दिन आधा भोजन ोप रह गया । ममन्तभद्रने साधारणतया इम शेषान्नको देवप्रमाद वतलाया: परन्तु राजाको उसमे मंनोप नहीं हुा । चौथे दिन जब और भी अधिक परिमागामें भोजन बच गया तब राजाका संदेह बढ़ गया और उमने पाँचवें दिन मन्दिरको, उस अवसर पर, अपनी सेनामे घिरवाकर दरवाजे को बोल डालने की ग्राज्ञा दी। दरवाजको खोलनके लिए बहुतमा कनकल शब्द होनेपर ममंतभद्रने उपमर्ग का अनुभव किया और उपमर्गकी निवृनिपर्यन्त गमस्त ग्राहार पानका त्याग करके नथा गरीरमे बिल्कुल ही ममन्व छोडकर, आपने बड़ी ही भत्ति माथ एकाग्र चितमे श्रीवृषभादि चतुर्विशति तीर्थक गेंकी स्तुनि * करना प्रारंभ किया । स्तुति करते हए, ममन्तभद्रनं जव ग्राटवें नीर्थकर धीचन्द्र प्रभम्वामीजी भले प्रकार स्तुति करके भीलिंगकी पोर दृष्टि की तो उन्हें उम स्थानपर, किसी दिव्यशक्तिके प्रतापमे, चन्द्र लांछनयुक्त ग्रहन्त भगवानका एक जाज्वल्यमान मृवर्गमय विशाल बिम्ब, निभूनिगहिन, प्रकट होता हग्रा दिखलाई दिया । यह नेम्वकर ममंतभद्रने दरवाजा खोल दिया और ग्राप शेष तीर्थकगेकी स्तुति करनेमे नल्लीन होगये। __दरवाजा खुलते ही इस माहात्म्यको देखकर शिवकोटि राजा बहुत ही आश्चर्यचकित हया और अपने छोटे भाई 'शिवायन'-सहित, योगिराज श्रीममतभद्र को उट नमस्कार करता हुआ उनके चरणोमे गिर पड़ा। समनभद्र ने, श्रीवर्द्धमान महावीरपर्यंत स्तुति कर चुकनेपर, हाथ उठाकर दोनों को प्राशीर्वाद दिया। इसके बाद धर्मका विस्तृत स्वरूप सुनकर राजा समार-देह भोगोंमें विरक्त होगया और उसने अपने पुत्र श्रीकंट' का राज्य देकर गिवायन-सहित उन मुनिमहाराजके समीप जिनदीक्षा धारण की । और भी कितने ही लोगोंकी • इसी स्तुतीको 'स्वयमभूस्तोत्र' कहते हैं ।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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