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________________ तिलोयपरणती और यतिवृषभ 603 तुतीय विद्वान् मूचित किया है और जिनका समय जैन कालगणनामोंके 1 मनुसार वीरनिरिण-संवत् 612 पर्थात् वि० सं० 142 (भद्रबाह द्वि०के समाप्तिकाल ) से पहले भले ही हो; परन्तु पीछेका मालूम नहीं होता। क्योंकि श्रुतकेवली भद्रबाहुके समयमें जिन-कथित श्रुतमें ऐसा कोई विकार उपस्थित नहीं हुमा था, जिसे गाथामें 'मदवियारो हुप्रो भासासुतं मु जं जिरणे कहियं' इन शब्दोंद्वारा सूचित किया गया है-वह भविच्छिन्न चला पाया था। परन्तु दूसरे भद्रबाहुके समयमें वह स्थिति नहीं रही थी-कितना ही शुनज्ञान लुप्त हो चुका था और जो अवशिष्ट था वह अनेक भाषा-सूत्रोंमें परिवर्तित हो गया था। और इसलिये कुन्दकुन्दका समय विक्रपकी दूसरी शताब्दी तो हो सकता है परन्तु तीसरी या तीसरी शतान्दिके बादका वह किसी तरह भी नहीं बनता।' परन्तु मेरे इम सब विवेचनको प्रेमीजी की बद्धमूल हुई धारणाने कबूल नहीं किया, पोर इमलिये वे अपने उक्त ग्रन्यगत लेखमें मर्कराके ताम्रपत्रको कुन्दकुन्दके स्वनिर्धारित समय (गक म० 38 के बाद ) के मानने में सबसे बड़ी बाघा' स्वीकार करते हए और यह बतलाते हुए भी कि "नब कुन्दकुन्दको यति. वृषभके बाद मानना प्रमगन हो जाता है / " लिखते है "पर इसका समाधान एक तरहगे हो सकता है और वह यह कि कोण्डकुन्दान्वयका प्रथं हमें कुन्दकुन्दकी वंशपरम्परा न करके कोण्डकुन्दपुर नामक स्थानमे निकली हुई परम्पग करना चाहिये / जमे श्रीपुर स्थानकी परम्परा श्रीपरान्वय, प्रगलकी परगनान्वय, फितरको कितूरान्वर, मथुराकी माथुरान्वय प्रादि / " परन्तु अपने इस मंभावित समाधानकी कल्पनाके समर्थनमें पापने एक भी प्रमाण उपस्थित नहीं किया, जिससे यह मालूम होता कि श्रीपुरान्वयकी तरह कुन्दकुन्दपुरान्वयका भो कही उल्नेख पाया है अथवा यह मालूम होता कि जहाँ पपनन्दि अपरनाम कुन्दकुन्दका उल्लेख पाया है वहाँ उसके पूर्व कुन्दकुन्दान्वय जैन कालगणनामोंका विशेष जानने के लिये देखो लेखकद्वारा लिखित 'स्वामी समन्तभद्र' ( इतिहास ) का 'गमय निर्णय' प्रकरण पृ० 183 से तथा 'भ० महावीर पोर उनका समय' नामक पुस्तक पृ० 31 से /
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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