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जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश यह सूचित करते हुए कि महावीर भगवानके अनेकान्तात्मक शासनमें एकाधिपतित्वरूप-लक्ष्मीका स्वामी होनेकी शक्ति है, कलिकालको भी उस शक्तिके अपवादका-एकाधिपत्य प्राप्त न कर सकनेका---एक कारण माना है । यद्यपि, कलिकाल उसमें एक साधारण बाह्य कारण है,असाधारणकारकेरूपमें उन्होंने श्रोताओं का कलुषित प्राशय ( दर्शनमोहाकान्त-चित्त ) और प्रवक्ता (प्राचार्यादि) का वचनानय ( वचनका अप्रशस्त निरपेक्ष* नयके साथ व्यवहार ) ही स्वीकार किया है, फिर भी यह स्पष्ट है कि कलिकाल उस शासनप्रचारके कार्यमें कुछ बाधा डालनेवाला-उसकी सिद्धि को कठिन और जटिल बना देनेवालाज़रूर है । यथा
कालः कलिर्वा कलुषाशयो वा श्रीतुः प्रवक्तवचनानयो वा । त्वच्छासनै काधिपतित्व-लक्ष्मी-प्रभुत्वशक्तेरपवाद हेतुः ।।५।।
__----युक्त्यनुशासन । स्वामी समन्तभद्र एक महान् प्रवक्ता थे, वे वचनानयके दापम बिल्कुल रहित थे, उनके वचन-जैसा कि पहले जाहिर किया गया है---स्याद्वादन्यायको तुलामें तुले हुए होते थे; विकार-हेतुओके ममुपस्थित होने पर भी उनका चिन कभी विकृत नहीं होता था- उन्हे क्षोभ या क्रोध नहीं माना था.---.और इसलिये उनके वचन कभी मार्गका उल्लघन नहीं करते थे। उन्होंने प्रानी अात्मिक शुद्धि, अपने चारित्रवल और अपने स्तुत्य वचनोके प्रभावसे श्रोतानोंके कलुषित आशय पर भी बहुत कुछ विजय प्राप्त कर लिया था-उमे कितने ही अगोम बदल दिया था। यही वजह है कि आप स्याहादगामनको प्रतिष्ठित करनमें बहुत
* 'एकाधिपतित्वं मग्वय्याश्रयणीयत्वम् --इति विद्यानन्दः ।
'सभी जिमका अवश्य प्राश्रय ग्रहण करें, मे एक म्यामीपनेको एकाधिपतित्व या एकाधिपत्य कहते हैं।'
६ अपवादहेतुर्वाह्य: माधारण: कलिरेव काल:- इति विद्यानन्दः ।
* जो नय परस्पर अपेक्षारहित है वे मिथ्या है और जो अपेक्षासहित है वे सम्यक् अथवा वस्तुतत्त्व कहलाते है । इसीसे स्वामी समन्तभद्रने कहा है
'निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽयंकृत' -देवागम ।