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स्वामी समन्तभद्र
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शताब्दी तार्किक विद्वान्, भट्टाकलंकदेव जैसे महान् श्राचार्य लिखते हैं कि 'आचार्य समन्तभद्रने संपूपदार्थतत्त्वोंको अपना विषय करनेवाले स्याद्वादरूपी पुण्योदधि- तीर्थको इस कलिकालमें, भव्यजीवोंके प्रान्तरिक मलको दूर करनेके लिये प्रभावित किया है— उसके प्रभावको सर्वत्र व्यास किया है । यथातीर्थं सर्वपदार्थ तस्वविषय- स्याद्वाद पुण्योदधेभव्यानामकलंकभावकृतये प्राभावि काले कलौ । येनाचार्य ममन्तभद्रयतिना तम्मै नमः संततं कृत्वा वित्रियते स्तवो भगवतां देवागमस्तत्कृतिः ॥
यह पद्य भट्टालककी 'अष्टशती' नामक वृत्तिके मंगलाचरणका द्वितीय पद्य है, जिसे भट्टाकलंकने, समन्तभद्राचार्यके 'देवागम' नामक भगवत्स्तोत्रकी वृत्ति ( भाप्य ) लिखने का प्रारम्भ करते हुए, उनकी स्तुति और वृत्ति लिखनेकी प्रतिज्ञारूप दिया है। इसमें समन्तभद्र और उनके वाङ्मयका जो संक्षिप्त परिचय दिया गया है वह बड़े ही महत्त्वका है। समन्तभद्रनं स्याद्वादतीर्थको कलिकाल में प्रभावित किया. इस परिचयके 'कलिकालमे' ( 'काले कलों ) शब्द : खास तौर से ध्यान देने योग्य है और उनसे दो अथकी ध्वनि निकलती हैएक तो यह कि, कलिकाल में स्यानादितीर्थको प्रभावित करना बहुत कठिन कार्य था, समन्तभद्रने उसे पूरा करके निःसन्देह एक ऐसा कठिन कार्य किया है जो दूसरा प्रायः नही हो सकता था अथवा नहीं हो सका था और दूसरा यह कि कलिकालमे समन्तभसे पहले उक्त तीर्थकी प्रभावना-महिमा या तो हुई नहीं थी, या वह होकर लुप्तप्राय हो चुकी थी और या वह कभी उतनी और उतने महत्वकी नही हुई भी जितनी श्रीर जितने महत्वकी ममन्तभद्रके द्वारा, उनके समयमे, हो सकी है। पहले श्रयं में किसीको प्राय: कुछ भी विवाद नहीं हो सकता - कलिकाल में जब कलुपाशयकी वृद्धि हो जाती है तब उसके कारण अच्छे कामोंका प्रचलित होना कठिन हो ही जाता है- स्वयं समन्तभद्राचार्यने,
* नगर तालुका (जिοशिमोगा ) के ४६ वें शिलालेखमें, समन्तभद्रके ''देवागम' स्तोत्रका भाष्य लिखनेवाले प्रकलंकदेवको 'महद्धिक' लिखा है । यथाजीयात्समन्तभद्रस्य देवागमनसंज्ञिनः । स्तोत्रस्य माप्यं कृतवानकलंको महद्धिकः ।।