________________ सर्वार्थसिशिपर समन्तभद्रका प्रभाव 335 रुपजायते, सा फलमित्युच्यते / उपेक्षा अज्ञाननाशो वा फलम् / रागद्वेषयोरप्रणिधानमुपेक्षा अन्धकारकल्पाज्ञाननाशो वा फलमित्युच्यते / " --मर्वार्थसिद्धि प्र०१ मू०१० यहाँ इन्द्रियोंके मालम्बनसे अर्थके निश्चयमें जो प्रीति उत्पन्न होती है उसे प्रमाणशानका फल बतलाकर 'उपेक्षा प्रज्ञाननाशो वा फलम्' यह वाक्य दिया है, जो स्पष्टतया प्राप्तमीमांसाकी उक्त कारिकाका एक अवतरण जान पड़ता है और इसके :रा प्रमाणफल-विषयमें दूसरे प्राचार्यके मतको उद्धृत किया गया है / कारिकामें पड़ा हुमा 'पूर्वा' पद भी उसी 'उपेक्षा' फलके लिये प्रयुक्त हुमा है जिससे कारिकाका प्रारम्भ है / (7) "नयस्तवेष्टा गुणमुख्यकल्पतः // 6 // " -स्वयम्भूस्तोत्र "निरपेक्षा नयामिभ्याः सापेक्षा वन्तु तेऽर्थकृत / " --प्राप्तमीमामा, का० 108 "मिथोऽनपेक्षाःपुरुषार्थहेतुनीशा न चांशी पृथगाम्ति तेभ्यः / परस्परक्षाः पुरुषार्थहेतुणा नयास्तद्वदसिक्रियायाम / / --युक्त्यनुशासन, का० 56 "त एत ( नया ) गुण-प्रधानतया परस्परतंत्राः सम्यग्दर्शनहतयः पुरुषार्थक्रियासाधनसामथ्यात् तन्त्वादय इव यथोपायं विनिवेश्यमानाः पटादिमंज्ञाः स्वतंत्राश्चाममर्थाः / निरपेक्षेषु तन्त्वादिषु पटादिकार्य नास्तीति // " __--सर्वार्थसिदि, म० 1 10 33 स्वामी ममन्तभद्रने अपने उक्त वाक्योंमें नयोंके मुख्य भोर गुरण (गौण) ऐमे दो भेद बतलाये है, निरक्षेप नयोंको मिथ्या तथा सापेक्ष नयोंको बस्तु = वास्तविक (मम्यक) प्रतिपादित किया है पोर सापेक्ष नयोंका 'अर्थकृत् लिख कर फलतः निरपेक्ष नयोंको 'नाथंकृत अथवा कार्याशक्त (मसभर्थ) मूचित किया है। साथ ही, यह भी बतलाया है कि जिस प्रकार परस्पर अनपेक्ष अंश पुरुषार्थ के हेतु नहीं, किन्तु परस्पर सापेक्ष मंश पुरुषार्थके हेतु देख-जावे है पोर अंगोंसे अंशी पृथक् (भिन्न प्रथवा स्वतन्त्र ) नहीं होता। उसी प्रकार नयोंको जानना चाहिए। इन सब बातोंको सामने रखकर ही पूज्यपादने