________________ 336 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश अपनी सर्वार्थसिद्धि के उक्त वाक्यको सृष्टि की जान पड़ती है / इस वाक्यमें मंशअंशीकी बातको तन्त्वादिपटादिसे उदाहृत करके रक्खा है / इसके 'गुणप्रधानतया', 'परस्परतंत्राः', 'पुरुषार्थ-क्रियासाधनसामर्थ्यात्' और 'स्वतंत्राः' पद क्रमशः 'गुणमुख्यकल्पतः' 'परस्परेक्षा:-सापेक्षा 'पुरुषार्थ-हेतुः', 'निरपेक्षाः' पनपेक्षाः' पदोंके समानार्थक है / और 'असमर्थाः' तथा 'कार्य नास्ति' ये पद 'मर्थकृत' के विपरीत 'नाथंकृत् के माशयको लिये हुए है। (5) "भवत्यभावोऽपि च वस्तुधर्मो भावान्तरं भाववदर्हतस्ते / प्रमीयते च व्यपदिश्यते च वस्तुव्यवस्थाङ्गममेयमन्यत् // " -युक्त्यनुशासन, का० 56 "प्रभावस्य भावान्तरत्वादेत्वङ्गत्वादिभिरभावस्य वस्नुधर्मत्वमिद्धेश्च / " --सर्वार्षसिद्धि, प० 6 0 27 इस वाक्यमें पूज्यपादने, प्रभावके वस्तुधर्मस्वकी सिद्धि बतलाते हुए, समन्तभद्रके युक्त्यनुशासन-गत उक्त वाक्यका शम्दानुपरगणके साथ कितना अधिक अनुकरण किया है, यह बात दोनों वाक्योंको पढ़ते ही स्पष्ट होजाती हैं / इनमें 'हत्वङ्ग' और 'वस्तुव्यवस्था ग' शब्द समानार्थक है। (E) "धनधान्यादि-प्रन्थं परिमाय नतोऽधिकेपु निस्पृहना / परिमित. परिग्रहः म्यादिच्छापरिमाणनामाऽपि ।"-रलक र ड श्रा० 61 "धन-धान्य क्षेत्रादीनामिच्छावशान कृत्परिच्छेदी गृहनि पंचमाणुव्रतम। -मर्वार्थ मिति, प्र. 020 यहाँ इच्छावगात् ऋतपरिच्छेदः' ये दाद परिमाय नतोधिक निस्पृहता' प्राशयको लिये हए है। (10) "तिर्यकक्लशवणिज्याहिसारम्भमलम्भनादीनाम् / ___कथाप्रसङ्गप्रसवः मतव्यः पापपशः / / " ..रत्नका 26 "तिर्यकालशवाणिज्यप्राणवधकारम्भ कादिषु पापसंयुक्त वचनं पापीपदेशः।" -~सर्वार्थमि०प्र०७ मू०५ 21 वें मूत्र ( 'दिग्देशानदण्ड ' ) की ध्याा अनर्थदण्ड तो समातभद्र-प्रतिपादित पांचों भेदोंको अपनाते हुए उनके जो लक्षण दिये है उनमे शब्द