________________ गन्धहस्ति महाभाष्यकी खोज 285 (8) माप्तमीमांसा ( देवागम) की 'प्रष्टसहस्री' टीका पर लघु समन्त भने 'विषमपदतात्पर्यटीका' नामकी एक टिप्पणी लिखी है, जिसकी प्रस्तावना. का प्रथम वाक्य इस प्रकार है :__ "इहहि / खलु पुरा स्वकीय-निरवद्य विद्या-संयम-संपदा गणधरप्रत्येकबुद्ध-श्रुतकेवलि-दशपूर्वाणां सूत्रकृन्महर्षीणां महिमानमात्मसात्कुर्वद्भिर्भगवद्भिरुमास्वातिपादैराचार्यवरासूत्रितस्य तत्त्वार्थाधिगमस्य मोक्षशास्त्रस्य गंधहस्त्याख्यं महाभाष्यमुपनिबध्नतः स्याद्वादविद्यामगुरुवः श्रीस्वामिसमन्तभद्राचार्यास्तत्र किल मंगलपुरस्सर-स्तव-विषय-परमाप्तगुणातिशय-परीक्षामुपक्षिप्तवन्तो देचागमाभिधानम्य प्रवचनतीर्थस्य सृ सा० सतीशचन्द्रने, अपनी 'हिस्टरी प्राफ इंडियन लांजिक'में, लघुसमन्तभद्रको ई० सन् 198 (वि० सं० 1057 ) के करीबका विद्वान् लिखा है। परन्तु बिना किसी हंतुके उनका यह लिखना ठीक प्रतीत नहीं होता; क्योंकि अष्टसहनीके अंत में 'केचित्' गन्दपर टिप्पणी देते हुए, लघुसमन्तभद्र उसमें वसुनन्दि प्राचार्य और उनकी देवागमवृत्तिका उल्लेख करत है। यथा"वसुनन्दिप्राचार्याः कचिच्छब्देन ग्राह्याः, यतस्तरेव स्वस्य वृत्यन्ते लिखितोयं श्लोक:' इत्यादि। और वमुनन्दि आचार्य विक्रमकी 12 वीं शताब्दीमें हुए हैं, इसलिये लघुसमन्तभद्र सम्भवतः विक्रमकी 13 वी शताब्दीसे पहले नहीं हए। रत्नकरण्ड-श्रावकाचारकी प्रस्तावनामें 'चिक्क ( लघु ) ममन्तभद्र' के विषयमे जो कुछ उल्लेख किया गया है उसे ध्यानमें रखते हुए ये विक्रमकी प्राय: 14 वीं शतानीके विद्वान् मालूम होते हैं और यदि 'माघनन्दी' नामान्तरको लिये हए तथा अमरकीतिके शिष्य न हों तो ज्यादेमे ज्यादा विक्रमकी 13 वीं शताब्दीके विद्वान हो सकते है। यह प्रस्तावनावाक्य मुनिजिनविजयजीने पूनाके 'भण्डारकर इन्स्टिटयूट' की उम ग्रन्थ प्रतिपरप उद्धृत करके भेजा था जिमका नम्बर 620 है / “मंगलपुरस्सरस्तवोहि शास्त्रावतार-रचित-स्तुनिरुच्यते / मंगलं पुरस्सरमस्येति मंगलपुरस्सर: शास्त्रावतारकालस्तत्र रचितः स्तवो मंगलपुरस्सरस्तव इति व्याख्यानात् / " -प्रष्टसहस्री