________________ 284 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश मंगलाचरण होना दूसरी बात। एक प्रकरण मंगलात्मक होते हुए भी टीकाकारोंके मंगलाचरणकी भाषामें मंगलाचरण नहीं कहलाता। टीकाकारोंका मंगलाचरण अपने इष्टदेवादिककी स्तुतिको लिए हुए या तो नमस्कारात्मक होता है या माशीर्वादात्मक और कभी कभी उसमें टीका करनेकी प्रतिज्ञा भी शामिल रहती है,अथवा इष्टकी स्तुति-ध्यानादिपूर्वक टीका करने की प्रतिज्ञाको ही लिये हुए होता है; परन्तु वह एक ग्रन्थके रूपमें अनेक परिच्छेदोंमें बंटा हुमा नहीं देखा जाता / प्राप्तमीमांसामें ऐसा एक भी पद नहीं है जो नमस्कारात्मक या पाशीर्वादात्मक हो अथवा इष्टकी स्तुनिध्यानादिपूर्वक टीका करने की प्रतिज्ञाको लिए हुए हो; उसके अन्तिम पद्यमे भी यह मालूम नहीं होता कि वह किम ग्रन्यका मंगलाचरण है, और यह बात पहिले जाहिर की जा चुकी है कि उसमें दशपरिच्छेदोका जो विभाग है वह स्वयं समन्तभद्राचार्यका किया हुआ है / ऐमी हालतमें यह प्रतीत नहीं होता कि प्राप्तमीमामा गंधहस्तिमहाभाष्यका प्रादिम मंगलाचरण हैमर्थात्. वह भाष्य 'देबागमनभोयानचामरादिविभूतिय / मायाविष्वपिदृश्यन्ते नातम्त्वमसिनो महान् // ' इम पद्यसे भी प्रारम्भ होता है और इससे पहले उसमें कोई दूसरा मंगल पद्य अथवा वाक्य नहीं है / हो सकता है कि समन्तभद्रने महाभाष्यकी प्रादिमें प्राप्तके गुणोंकाकोई खाम स्तवन किया हो और फिर उन गुणोंकी परीक्षा करने अथवा उनके विषयमें अपनी श्रद्धा और गुणज्ञताको संसूचित करने प्रादिके लिये प्राप्तमीमांसा' नामके प्रकरणकी रचना की हो अथवा पहलेसे रचे हुए अपने इम ग्रन्थक वहाँ उढ़त किया हो / और यह भी हो मकता है कि मूलग्रन्थ के मंगलाचरणको ही उन्होंने महाभाष्यका मंगलाचरण स्वीकार किया हो; जमे कि पूज्यपादकी बाबत अनेक विद्वानोंका कहना है कि उन्होंने तत्त्वार्थमूत्रके मंगलाचरणकोही अपनी सर्वार्थ मिद्धि टीकाका मगलाचरण बनाया है और उमसे भिन्न टीकामें किसी नये मंगलाचरणका विधान नहीं किया है। दोनों ही हालतोंमें 'प्राप्तमीमासा' प्रकरणसे पहले दूसरे मंगलाचरणका-पाप्तस्तवन-होना ठहरता है, जिसकी संभावना अभी बहुत कुछ विचारणीय है। - परन्तु किमने ही विद्वान् इस मतसे विरोध भी रखते है जिसका हाल मागे चलकर मालूम होगा।'