________________
श्री कुन्दकुन्दाचार्य और उनके प्रन्थ
६३
१ श्रायतन, २ चैत्यगृह, ३ जिनप्रतिमा, ४ दर्शन ५ जिनबिम्ब, ६ जिनमुद्रा, ७ श्रात्मज्ञान, ८ देव, ह तीर्थ, १० अर्हन्त, ११ प्रव्रज्या इन ग्यारह बातोंका क्रमशः श्रागमानुसार बोध दिया गया है। इस ग्रंथकी ६१ वीं गाथामें कुन्दकुन्दने अपनेको भद्रबाहुका शिष्य प्रकट किया है जो संभवतः भद्रबाहु द्वितीय जान पड़ते है; क्योंकि भद्रबाहु श्रुतकेवनी के समय में जिनकथित श्रुतमें ऐसा विकार उपस्थित नहीं हुआ था जिसे उक्त गाथामें 'सहवियारों हूओ भासासुत्तेसु जं जिणे कहियं इन शब्दोंद्वारा सूचित किया गया है वह अविच्छिन्न चला ग्राया था । परन्तु दूसरे भद्रबाहु समयमें वह स्थिति नहीं रही थी - कितना ही श्रुतज्ञान लुप्त हो चुका था और जो अवशिष्ट था वह अनेक भाषा-सूत्रोंमें परिवर्तित हो गया था । इससे ६१ वीं गायाके भद्रबाहु भद्रबाहुद्वितीय ही जान पड़ते हैं । ६२ वीं गाथामें उसी नाममे प्रसिद्ध होने वाले प्रथम भद्रबाहका जो कि बारह अंग और चोदपूर्वके ज्ञाता श्रुतकेवली थे, अन्त्य मंगलके रूपमें जयघोष किया गया और उन्हें माफ तौर पर 'गमकगुरु' लिखा है । इस तरह अन्तकी दोनों गायोंमें दो अलग अलग भद्रबाहुयोंका उल्नेव होना अधिक युक्तियुक्त और बुद्धिगम्य जान पड़ता है ।
१०. भावपाहुड - १६३ गाथाग्रोंका यह ग्रन्थ इसमें भावकी - चित्तशुद्धि की महत्ताको अनेक प्रकार किया गया है । विना भावके बाह्यपरिग्रहका त्याग करके नग्न दिगम्बर साधु तक होने और वन में जा बैठने को भी व्यर्थ ठहराया है। परिणामशुद्धिके बिना संसार - परिभ्रमण नहीं रुकता और न बिना भावके कोई पुरुषार्थ ही सकता है, भाव बिना सब कुछ निःमार है इत्यादि अनेक बातों यह ग्रन्थ परिपूर्ण है। इसकी कितनी ही भद्राचार्य ने अपने ग्रात्मानुशासन ग्रन्थमे किया है ।
११. मक्खिपाहुड – यह मोक्ष-प्राभृत भी बड़ा ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है और इसकी गाथा - संख्या १०६ है । इसमें आत्माके बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा ऐसे तीन भेद करके उनके स्वरूपको समझाया है और मुक्ति अथवा
बडा ही महत्त्वपूर्ण है ।
सर्वोपरि ख्यापित
बहुमूल्य शिक्षाओं एवं मर्मकी गाथाओं का अनुसरण गुण
सद्वियारो हुम्रो भासा - सुत्तेसु जंजिरगे कहियं ।
सो तह कहियं गायं सीसेण य भट्बाहुस्स ।। ६१ ॥