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११० जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश महाराजसे पूछने लगा कि आत्माका हित क्या है ? ( यहाँ प्रश्न और इसके बादका उत्तर-प्रत्युत्तर प्रायः सब वही है जो 'सर्वार्थसिद्धि' की प्रस्तावनामें श्रीपूज्यपादाचार्यने दिया है । ) मुनिराजने कहा 'मोक्ष' है। इस पर मोक्षका स्वरूप और उसकी प्राप्तिका उपाय पूछा गया जिसके उत्तररूपमें ही इस ग्रन्थका अवतार हुआ है।
इस तरह एक श्वेताम्बर विद्वान्के प्रश्नपर एक दिगम्बर आचार्यद्वारा इस तत्वार्थसूत्रकी उत्पत्ति हुई है, ऐमा उक्त कथनसे पाया जाता है । नहीं कहा जा सकता कि उत्पत्तिकी यह कथा कहाँ तक ठीक है । पर इतना जरूर है कि यह कथा सातसौ वर्षसे भी अधिक पुरानी है; क्योंकि उक्त टीकाके कर्ता बालचंद्र मुनि विक्रम की १३ वीं शताब्दीके पूर्वार्ध में हो गये है । उनके गुरु 'नयकीति' का देहान्त शक सं० १०६६ (वि० सं० १२३४) में हुअा था ।
मालूम नहीं कि इस कनड़ी टीकामे पहलेके और किस ग्रन्थमे यह कथा पाई जाती है । तत्त्वार्थमूत्रकी जितनी टीकाएँ इम ममय उपलब्ध हैं उनमे सबसे पुरानी टीका 'सर्वार्थमिद्धि' है । परन्तु उसमें यह कथा नहीं है। उमकी प्रस्तावनामे सिर्फ इतना पाया जाता है कि किमी विद्वान्के प्रश्नपर इस मूल ग्रन्थ (तत्वार्थसूत्र) का अवतार हुआ है । वह विद्वान् कौन था, किस सम्प्रदायका था, कहांका रहनेवाला था और उसे किस प्रकारसे ग्रन्थकर्ता प्राचार्यमहोदयका परिचय तथा समागम प्राप्त हुअा था, इन सब बातोंके विषयमें उक्त टीका मौन है। यथा---
"कश्चिद्भव्यः प्रत्यासन्ननिष्ठः प्रज्ञावान् स्वहितमुपलिप्मुविविक्त परमरम्ये भव्यसत्वविश्रामास्पदे क्वचिदाश्रमपदे मुनिपरिपगमध्ये सन्निपण्मण मूर्तमिव मोक्षमार्गमावाग्विसर्ग वपुषा निरूपयन्तं युक्त्यागमकुटालं परहितप्रतिपादनककार्यमार्यनिषेव्यं निर्ग्रन्थाचार्यवर्यमुपमद्य मविनयं परिपृच्छनिस्म, भगवन् ! किंखलु प्रात्मनो
ॐ देखो श्रवणबेलगोलस्थ शिलालेख नं० ८२।
+ इस पदकी वृत्तिमें प्रभाचन्द्रचार्यने प्रश्नकर्ता भव्यपुरुषका नाम दिया है जो पाठकी अशुद्धिसे कुछ गलतसा हो रहा है, और प्रायः सिद्धय्य' ही जान पड़ता है।