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________________ Amr तत्वार्थसूत्रकी उत्पत्ति हितं स्यादिति । स ाह मोक्ष इति । स एव पुनः प्रत्याह किं स्वरूपोऽसौ मोक्षः कश्चास्य प्राप्त्युपाय इति । आचार्य आह......।" संभव है कि इस मूलको लेकर ही किसी दन्तकथाके आधार पर उक्त कथाकी रचना की गई हो; क्योंकि यहां प्रश्नकर्ता और प्राचार्य महोदयके जो विशेषण दिये गये हैं प्रायः वे सब कनड़ी टीकामें भी पाये जाते हैं। साथ ही प्रश्नोत्तरका ढंग भी दोनोंका एक सा ही है । और यह सम्भव है कि जो बात सर्वार्थसिद्धि मे संकेत रूपमे ही दी गई है वह बालचन्द्र मुनिको गुरु परम्परामे कुछ विस्तारके साथ मालूम हो और उन्होंने उसे लिपिबद्ध कर दिया हो; अथवा किमी दूसरे ही ग्रन्थसे उन्हें यह मब विशेष हाल मालूम हुआ हो। कुछ भी हो, बात नई है जो अभी तक बहुतोंके जानने में न आई होगी और इसमें नत्वार्थमूत्रका समन्वय दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंके साथ स्थापित होता है । साथ ही, यह भी मालूम होता है कि उस समय दोनों सम्प्रदायोमे आज कल-जैसी खीचातानी नही थी और न एक दूमरेको घृणाकी दृष्टिसे देखता था । * श्रुतमागरी टीकामे भी इमा मूलका प्रायः अनुमरण किया गया है और इसे सामने रखकर ही ग्रन्थको उत्यानिका लिखी गई है। साथ ही, इतना विशेप है कि उसमें प्रश्नकर्ता विद्वान्का नाम 'द्वैपायक' अधिक दिया है । कनड़ी टीकावाली और बातें कुछ नहीं दी । यह टीका कनड़ी टीकासे कई सौ वर्ष वाद की बनी हुई है।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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