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________________ 428 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशा प्रकाश पार उतर जाते हैं। और सबोंके उदय उत्कर्ष में प्रथवा पात्माके पूण विकासमें सहायक है-पौर यह भी बतलाया है कि वह सर्वान्तवान् है-सामान्यविशेष, द्रव्य-पर्याय, विधि-निषेध और एकत्व-अनेकत्वादि अशेष धोको अपनाये हुए है-, मुख्य-गौणकी व्यवस्थासे मुव्यवस्थित है और मब दुखोंका अन्त करने वाला तथा स्वयं निरन्न है-अविनाशी तथा प्रखंडनीय है / साप ही, यह भी घोषित किया है कि जो शासन धर्मों में पारस्परिक अपेक्षाका प्रतिपादन नहीं करता है उन्हें सर्धया निरपेक्ष बतलाना है-वह मवंधोसे शुन्य होना है-उसमें किमी भी धमका अस्तित्व नहीं बन सकता और न उसके द्वारा पदार्थ-व्यवस्था ही ठीक बैठ सकती है; ऐगी हालतमें सर्वथा एकान्तशामन 'सर्वोदयनीयं' पदके योग्य हो ही नहीं सकता / जैसा कि ग्रंथफे निम्न वाक्यमे प्रकट है सर्वान्तवत्तद्गुग्ग-मुख्य-कल्पं सर्वान्त-शून्यं च मिथोऽनपेक्षम्। सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदय तीर्थमिदं तवैव / / 6 / / वीरके इस गासनमें बहुत बड़ी खूबी यह है कि 'इस गामनसे यथेष्ट प्रथवा भरपेट देप रखनेवाला मनुष्य भी, यदि समष्टि हुमा उपयनि-चक्षुमे-मान्मयं के त्यागपूर्वक ममाधानको दृष्टिमे-वीरमामनका अवलोकन और परीक्षगा करता है तो अवश्य ही उसका मानग व डिन हो जाता है-सर्वथा एकान्तरूप मिथ्यामनका प्राग्रह टूट जाता है.---ौर वह अभद्र अथवा मिथ्या-ष्टि होता हुप्रा भी मत्र और से भद्रग एव मम्यगद्दष्टि बनजाता है। ऐसी इस प्रन्यके निम्न वाक्य में स्वामी समन्तभद्र ने जोरों के माथ घोषणा की है कामं द्विपम्रप्युपपत्ति चक्षुः ममोक्षनां न ममटिरियम / त्वयि ध्रुवं खण्डित-मान-शृङ्गा भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः // 6 // इम घोपणामें सत्यका कितना अधिक साक्षात्कार और प्रात्म-विश्वास संनिहित है उसे बतलानेकी जरूरत नहीं, जरूरत है यह कहने पौर बतलानेकी कि एक समर्थ प्राचार्यको प्रेमी प्रबल घोपरणाके होते हुए भोर बोर शासनको 'सर्वोदयतीर्य' का पद प्राप्त होते हुए भी आज वे लोग क्या कर रहे है। जो तीर्थके उपासक कहलाते हैं, पण्डे-सुजारी बने हुए है और जिनके हाथों
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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