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७४. जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश स्थापना संयम अहिंसादि पंचभेदात्मक ही हो-किन्तु पंचसमितियों और तीन गुप्तियोंका उपदेश न दिया हो, और उनके उपदेशकी ज़रूरत भगवान् महावीरको ही पड़ी हो । और इसी लिये उनका छेदोपस्थापन संयम इस तेरह प्रकारके चारित्रभेदको लिये हुए हो, जिसकी उनके नामके साथ खास प्रसिद्धि पाई जाती है। परन्तु कुछ भी हो, ऋषभदेवने भी इस तेरह प्रकारके चारित्रका उपदेश दिया हो या न दिया हो, किन्तु इसमें तो सन्देह नहीं कि शेष बाईस तीर्थंकरोंने ' उसका उपदेश नहीं दिया है।
'यहाँपर इतना और भी बतला देना जरूरी है कि भगवान महावीरने इस तेरह प्रकारके चारित्रमेसे दस प्रकारके चारित्रको-पंचमहाव्रतों और पंचसमितियोंको--मूलगुणोंमें स्थान दिया है । अर्थात्, साधुओंके अट्ठाईस मूलगुणोंमें दस'मूलगुण इन्हें क़रार दिया है। तब यह स्पष्ट है कि श्रीपार्श्वनाथादि दूसरे तीर्थंकरोंके मूलगुण भगवान महावीरद्वारा प्रतिपादित मूलगुणोंसे भिन्न थे और उनकी संख्या भी अट्ठाईस नहीं हो सकती-दसकी सख्या तो एकदम कम हो ही जाती है; और भी कितने ही मूलगुण इनमें ऐसे है जो उस समयके शिष्योंकी उक्त स्थितिको देखते हुए अनावश्यक प्रतीत होते हैं । वास्तवमें मूलगुणों और उत्तरगुरणोंका साहा विधान समयसमयके शिष्योंकी योग्यता और उन्हें तत्तत्कलीन परिस्थितियोंमें सन्मार्गपर स्थिर रख सकनेकी आवश्यकतापर अवलम्बित रहता है। इस दृष्टिसे जिस समय जिन व्रतनियमादिकोंका आचरण सर्वोपरि मुख्य तथा प्रावश्यक जान पड़ता है उन्हें मृलगुग्ण करार दिया जाता है और शेषको उत्तर
* अट्ठाईस मूलगुणोंके नाम इसप्रकार हैं:
१ अहिंसा, २ सत्य, ३ अस्तेय, ४ ब्रह्मचर्य, ५ अपरिग्रह (ये पांच महावत); ६ ईर्या, ७ भाषा, ८ एषणा, ६ आदाननिक्षेपण, १० प्रतिष्ठापन, ( ये पांच समिति); ११-१५ स्पर्शन-रसन-ध्राण-चक्षु-श्रोत्र-निरोध ( ये पंचेंद्रियनिरोध); १६ सामायिक, १७ स्तव, १८ वन्दना, १६ प्रतिक्रमण, २० प्रत्याख्यान, २१ कायोत्सर्ग (ये षडावश्यक क्रिया); २२ लोच, २३ प्राचेलक्य, २४ अस्नान, २५ भूशयन, २६ प्रदन्तघर्षण, २७ स्थितिभोजन, और २८ एकभक्त ।