SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -~~ -~ ~~- ~~ - ~ श्रीकुन्दकुन्दाचार्य और उनके प्रन्थ कहते हैं; जब कि 'वट्ट' और 'वट्टक' जसे शब्द प्राकृत भाषाके उपर्युक्त अर्थके वाचक शब्द हैं और ग्रंथकी भाषाके अनुकूल पड़ते हैं। ग्रंथभरमें तथा उसकी टीकामें पेट्रगेरि या बेट्टकेरि रूपका एक जगह भी प्रयोग नहीं पाया जाता और न इस ग्रंथके कर्तृत्वरूपमें अन्यत्र ही उसका प्रयोग देखने में आता है, जिससे उक्त कल्पनाको कुछ अवसर मिलता। प्रत्युत इसके, ग्रंथदानकी जो प्रशस्ति मुद्रित प्रतिमें अंकित है उसमें 'श्रीमट्टरकाचार्यकृतसूत्रस्य सद्विधः' इस वाक्यके द्वारा 'व? रक' नामका उल्लेख है, जोकि ग्रंथकार-नामके उक्त तीनों रूपोंमेंसे एक रूप है और सार्थक है। इसके सिवाय, भाषा-माहित्य श्रीर रचनागेली की दृष्टिसे भी यह ग्रंथ कुन्दकुन्दके ग्रंथोंके साथ मेल खाता है. इतना ही नहीं बल्कि कुन्दकुन्दके अनेक ग्रंथोंके वाक्य (गाथा तथा गाथांश) इस प्रथमें उसी तरहसे संप्रयुक्त पाये जाते हैं जिम तरह कि कुन्दकुन्दके अन्य ग्रंथोंमे परस्पर एक-दूसरे ग्रंथके वाक्योंका स्वतन्त्र प्रयोग देखनेमें पाता है । अत: जब तक किसी स्पष्ट प्रमाण-द्वारा इस ग्रंथके कर्तृत्वरूपमें वट्टकेराचार्यका कोई स्वतन्त्र अथवा पृथक् व्यक्तित्व सिद्ध न हो जाए तब तक इस ग्रंथको कुन्दकुन्दकृत मानने और वट्टकेराचार्यको कुन्दकुन्दके लिये प्रयुक्त हुया प्रवर्तकाचार्यका पद स्वीकार करनेमे कोई खास बाधा मालूम नहीं होती। यह ग्रन्थ अति प्राचीन है; ईमाकी पांचवीं शताब्दीके विद्वान् प्राचार्य यतिवृषभने, अपनी तिलोपपण्गनीमें, 'मूनाारे इरिया एवं निउणं णिरूवेंति" इस वाक्यके साथ प्रस्तुत ग्रन्थके कयनका स्पष्ट उल्लेख किया है । ग्रन्थकी यह प्राचीनता भी उमके कुन्दकुन्दकृत होने में एक सहायक है-बाधक नहीं है । • देखो, अनेकान्त वर्ष २ किरस ३.१० २२१ से २२४ । .
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy