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१७६ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश प्रास हो गई थी जिससे वे दूसरे जीवोंको बाधा न पहुंचाते हुए, शीघ्रताके साथ सैकड़ों कोस चले जाते थे। उस उल्लेखके कुछ वाक्य इस प्रकार हैं...समन्तभद्राख्यो मुनि यात्पर्द्धिकः।
-विकान्तकौरव प्र० । ....समंतभद्रार्यो जीयात्प्राप्तपदर्द्धिकः ।
--जिनेन्द्रकल्यारणाभ्युदय । ...समंतभद्रस्वामिगलु पुनर्दीक्षेगोण्डु तपस्सामयदि चतुरङ्ग लचारणत्वमं पडेदु ।
-राजावलीकथे। ऐसी हालत में समन्तभद्रके लिये मुदूरदेशोंकी लम्बी यात्राएँ करना भी कुछ कठिन नही था । जान पड़ता है इमीमे वे भारत के प्रायः सभी प्रान्तोंमे प्रामानी. के साथ घूम सके हैं। __ ममंतभद्रके इस देशाटनके सम्बन्धमें मिस्टर एम. एम. गमम्वामी प्राय्यंगर, अपनी 'स्टडीज इन माउय इंडिज्न जैनिज्म' नामकी पुस्तक में लिखते हैं
".... It is evident that he (Samantbhadra ) was a great Jain missionary who tricd 10 spreadTar and wide Jain doctrines and morals and that he met with no opposition from other sects wherever he went.''
अर्थात्-यह स्पष्ट है कि समन्तभद्र एक बहुन बरे जैनधर्मप्रचारक थे, जिन्होंने जैनमिद्धान्तों और जैन प्राचारोंको दूर दूर तक विम्नारके माथ फैलानेका उद्योग किया है, और यह कि जहां कहीं वे गये हैं उन्हें दूसरे मम्प्रदायोंकी तरफसे किसी भी विरोधका सामना करना नहीं पड़ा।
जलमुपादाय वाप्यादिष्वप्कायान् जीवानविराधयंत: भूमाविव पादोद्धारनिक्षेप. कुशला जलचारणाः । भुव उपर्याकाशे चतुरंगुलप्रमाणे जंघोक्षेपनिक्षेपयीघ्र. करणपटवो बहुयोजनशनासु गमनप्रवगा जंघचारणाः । एवमिनो न वेदितव्याः ।
-प्रध्याय ३, मूत्र ३६ ।