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स्वामी समन्तभद्र
पहुँचने से पहले रहे हैं या पीछे, यह कुछ ठीक मालूम नहीं हो सका ।
बनारस में आपने वहाँके राजाको सम्बोमन करके यह वाक्य भी कहा था'राजन यस्यास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैननिर्ग्रन्थवादी | ' अर्थात् - हे राजन् में जैननिर्ग्रन्यवादी हूँ, जिस किसीकी भी शक्ति मुझमे वाद करनेकी हो वह सन्मुख ग्राकर वाद करे ।
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और इसमे आपकी वहॉपर भी स्पष्ट रूपसे वादघोषणा पाई जाती है । परन्तु बनारस में आपकी वाद्घोषणा ही होकर नहीं रह गई, बल्कि वाद भी हुआ जान पड़ता है, जिसका उल्लेख तिरुमकूडलुनरसीपुर ताल्लुकेके शिलालेख नं ०१०५ के निम्नपद्यसे, जो शक मं० ११०५ का लिखा हुआ है, पाया जाता हैसमन्तभद्र रसस्तुत्यः कस्य न स्यान्मुनीश्वरः । वाराणसीश्वरस्यामे निर्जिता येन विद्विषः ॥
इस पद्यमें लिखा है कि वे समन्तभद्र मुनीश्वर जिन्होंने वाराणसी ( बनारस ) के राजाके सामने शत्रुग्रोंकी-मिथ्यैकान्तवादियोंको परास्त किया है किसके स्तुतिपात्र नही है ? अर्थात, सभीके द्वारा स्तुति किये जानेके योग्य हैं । समन्तभद्रने अपनी एक ही यात्रामें इन सब देशों तथा नगरीमें परिभ्रमण किया है अथवा उन्हें उसके लिये अनेक यात्राएं करनी पड़ी है, इस बातका यद्यपि कहीं कोई स्पष्ट उल्लेख नही मिलता फिर भी अनुभवमे और आपके जीवनकी कुछ घटनाोंने यह जरूर मालूम होता है कि आपको अपनी उद्देशसिद्धि के लिये एकमे अधिक बार यात्राके लिये उठना पड़ा है- 'ठक्क' से कांची पहुँच जाना और फिर वापिस वैदिश तथा करहाटकको आना भी इसी बातको सूचित करता है । बनारस आप कांचीमे चलकर ही, दशपुर होते हुए, पहुँचे थे।
समन्तभद्रके सम्बंध में यह भी एक उल्लेख मिलता है कि वे 'पदद्धक' थेचारण + ऋद्धि से युक्त थे - प्रर्थात् उन्हें तपके प्रभावसे चलनेकी ऐसी शक्ति
* यह 'कांच्यां नग्नाटकोह' पद्यका चौथा चरण है ।
+ 'तस्वार्थ राजवार्तिक' में भट्टाकलंकदेवने चाररणयुक्तों का जो कुछ स्वरूप दिया है वह इस प्रकार है- 'क्रियाविषया ऋद्धिद्विविधा चारणत्वमाकाशगामित्वं चेति । तत्र चारणा अनेकविधाः जलजंघातं सुपुष्पपत्रश्रेण्यग्निशिखाद्यालंबनगमनाः ।