________________ 332 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश (2) "नित्यत्वैकान्तपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते / " -प्राप्तमीमांसा, का० 37 "भावपु नित्येपु विकारहानेर्न कारकव्याप्त कार्ययुक्तिः / न बन्धभोगौ न च तद्विमोक्षः............ -युक्त्यनुशासन, का० 8 "न मर्वथा नित्यमुद्रेत्यपैनि न च क्रियाकारकमत्र युक्तम्।" -स्वयम्भूस्तोत्र 24 "सर्वथा नित्यत्वे अन्यथाभावाभावात् संसारतन्निवृत्तिकारणप्रक्रियाविरोधः स्यात् / " --पर्वार्थमिद्धि, प० 5 मू० 31 यहाँ पूज्यपादने 'नित्यत्वैकानपक्ष' पदके लिये ममन्तभद्रके ही अभिमतानुमार 'मन्था नित्यत्वे' इस ममानार्थक पदका प्रयोग किया है, 'विकिया नोपपद्यते' और 'विकारहानेः' के अाशयको 'अन्यथाभावाभावात्' ५दके द्वारा व्यक्त किया है और शेषका ममावेश 'समार-निवृत्तिकारगप्रक्रियाविरोधः स्यात्' इन गन्दोंमें किया है। (3) “विवक्षितो मुख्य इनीप्यतेऽन्यो गुणोऽविवक्षो न निरात्मकते। स्वयम्भूस्तोत्र 53 "विवक्षा चाऽविवक्षा च विशेष्येऽनन्न धर्मिणि। मनो विशेषणम्याऽत्र नाऽमनम्नम्नदर्थिभिः / / " -प्राप्तमीमामा, का० 35 "अनेकान्तात्मकम्य वस्तुनः प्रयोजनवाद्यस्य कम्यधिद्धर्मम्य विवक्षया प्रापितं प्राधान्यमपितमुपनीतमिति यावत / नविपरीतमनपिनमा प्रयोजनाभावात् / मतोऽप्यविवक्षा भवतीत्युपमजनोभुतमनपित मुच्यते / -सर्वार्थसिद्धि, प्र०५ मू. 32 यहाँ 'अपित' और 'प्रनपित' शब्दोंकी व्याख्या करते हुए समन्तभद्रकी 'मुस्य' और 'गुण (गौरण)' शब्दोंकी व्याख्याको अर्थतः अपनाया गया है। मुख्य के लिये प्राधान्य, 'गुण' के लिये 'उपसर्जनीभूत' 'विवभिन' के लिये 'विवक्षया प्रापित' और 'अन्यो गुणः' के लिये 'तद्विपरीतमनपिनम्' जैसे शब्दोंका प्रयोग