________________ समन्तभद्रका प्रभाव 333 किया गया है। साथ ही, 'अनेकान्तात्मकस्य वस्तुन: प्रयोजनवाद्यस्य कस्यचिधर्मस्य ये शब्द 'विवक्षित' के स्पष्टीकरणको लिये हुए है-पासमीमांसाकी उक्त कारिकामें जिस अनन्तर्मिविशेष्यका उल्लेख है और युक्त्यनुशासनकी 46 वी कारिकामें जिसे 'तत्त्वं त्वनेकान्तमशेषरूपम्' शब्दोंसे उल्लेखित किया है उसीको पूज्यपादने 'अनेकान्तात्मकवस्तु'के रूपमें यहाँ ग्रहण किया है। और उनका 'धर्मम्ध' पद भी समन्तभद्रके 'विशेषणस्य' पदका स्थानापन्न है। इसके सिवाय, दूसरी महत्वकी बात यह है कि प्रातमीमांसाकी उक्त कारिकामें जो यह नियम दिया गया है कि विवक्षा और अविवक्षा दोनों ही सत् विशेषणकी होती है--प्रसत्की नहीं-पौर जिसको स्वयम्भूस्तोत्रके 'मविवक्षो न निगत्मक:' शब्दोंक द्वारा भी मूचित किया गया है, उसीको पूज्यपादने 'सतोऽप्यविक्षा भवतीति' इन शब्दोंमें संग्रहीत किया है। इस तरह अपित और अनर्पितको व्याख्यामे समन्तभद्र का पूरा अनुसरण किया गया है / (5) "न द्रव्यपर्यायपृथंब्यवस्था, द्वयात्म्यमेकापणया विरुद्धम् / धर्मी च धर्मश्च पिथ स्वधेमी न सर्वथा तेऽभिमतौ विरुद्धौ।" -युक्त्यनुशासन, का० 47 . •न सामान्या मनानि न व्यनि व्यक्तमन्वयान। व्यत्यदेति विशंपान महकत्रोदयादि सन् // " -प्राप्तमामासा, का० 57 "नन इदमेव विरदं तदेव निन्यं नदेवानित्यमिति / यदि नित्यं व्ययोदयामावादनित्यनाच्याघानः / अवानियत्वमेव स्थित्यभावानित्यताव्याघात इति / नेतद्विरुद्धम् / कत: : (उलानिका.... 'अपितानपितमिद्धेर्नाम्नि विरोधः / तद्यथा-~एकम्य दरद नम्मापना. पुत्री. भ्राना, भागिनय इत्येवमादयः सम्बन्धा जनकत्व-जन्यत्वादानमित्ता ननिरनयन्ते अपरगाभदान् / पुनपक्षेया पिना, पित्रपक्षमा पत्र लिमादिः। तथा द्रा पनि सामान्यपगया नित्यं. विशेषापराया जानत्यानानन निगधः / --मनायकि 50 यहाँ पूज्यपादने एक ही वस्तुमे उत्पाद व्ययादिकी दृष्टि से नित्य-मानत्यक -विरोधकी गंका उठाकर उसका जो परिहार किया है वह सब युक्त्यनुशासन