________________ 564 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशन प्रकाशं तथा प्रभावक प्राचार्य घोषित किया हो / अन्यथा, द्वात्रिंशिकायोंपरसे सिडसेन गम्भीर विचारक एवं कठोर समालोचक होने के साथ साथ जिस उदार स्वतन्त्र पौर निर्भय-प्रकृतिके समर्थ विद्वान् जान पड़ते हैं उससे यह माशा नहीं की जा सकती कि उन्होंने ऐसे मनुचित एवं प्रविवेकपूर्ण दण्डको यों ही चुपके-से गर्दन झुकाकर मान लिया हो, उसका कोई प्रतिरोध न किया हो अथवा अपने लिये कोई दूसरा मार्ग न चुना हो / सम्भवतः अपने साथ किये गये ऐसे किसी दुव्यंवहारके कारण ही उन्होंने पुराणपन्थियों अथवा पुरातनप्रेमी एकान्तियोंकी (डा. त्रिशिका ६में) कड़ी मालोचनाएं की है। यह भी हो सकता है कि एक सम्प्रदायने दूसरे सम्प्रदायकी इस उज्जयिनीवाली घटनाको अपने सिर सेनके लिये अपनाया हो अथवा यह घटना मूलतः कांची या काशी में घटित होनेवाली समन्तभद्रको घटनाको ही एक प्रकार कापी हो और इसके द्वारा सिद्धसेनको भी उमप्रकारका प्रभावक स्थापित करना अभीष्ट रहा हो / कुछ भी हो, उक्त द्वात्रिशिकामोंके का सिद्धसेन अपने उदार विचार एवं प्रभावादिके कारण दोनों सम्प्रदायोमें समानम्पसे पाने जाते है-चाहे वे किसी भी सम्प्रदायमें पहले अथवा पीछे दीक्षित क्यों न हुए हों। __परन्तु न्यायावतारके कर्ता मिसनकी दिगम्बर-सम्प्रदायों बंसी कोई बाम मान्यता मालूम नहीं होती और न उम ग्रन्थपर दिगम्बरोंकी किसी खास टीकाटिप्पणीका ही पता चलता है, इमोमे वे प्राय: श्वेताम्बर जान करते है / श्वेता. म्बरोंके अनेक टीका-टिप्पण भी न्यायावतारपर उपलब्ध होते है. उसके प्रमाण स्वपरामासि' इत्यादि प्रयम इलोकको लेकर तो विक्रमकी ११वी शताब्दीक विद्वान् जिनेश्वरसरिने उस पर 'प्रमालक्ष्म' नामका एक सटीक वार्तिक ही रच डाला है, जिसके अन्त में उसके रचने में प्रवृत्त होनेका कारण दुर्जनवाक्योंको बतलाया है जिनमें यह कहा गया है कि 'इन इवेताम्बरीक दलक्षरण और प्रमाणलक्षण-विषयक कोई अन्य अपने नहीं है-ये परलभरपोरंजीवी है-बौद्ध तथा दिगम्बरादि ग्रन्थों से अपना निर्वाह करनेवाले है-प्रत: ये प्राविसे नही-- किसी निमित्त से नये ही पैदा हुए पर्वाचीन है। साथ ही यह भी बताया है कि 'हरिभद्र, मल्लवादी और प्रभयदेवमूरि-जैसे महान् प्राचायोंकि वारा इन विषयोंकी उपेक्षा किये जानेपर भी हमने उसकारणसे यह प्रमानम' नामका