________________ सन्मतिसूत्र और सिखसेन 565 अन्य बातिकरूपमें अपने पूर्वाचार्यका गौरवप्रकाशित करने के लिये ( टीका"पूर्वाचायगौरव-दर्शना") रचा है और (हमारे भाई ) बुद्धिसागराचार्यने संस्कृत-प्राकृत-शब्दोंकी सिद्धि के लिये पोंमें व्याकरण पन्थकी रचना की है। इस तरह सन्मतिसूत्रके वर्ता सिद्धसेन दिगम्बर और न्यायवतार के कर्ता सिख सेन श्वेताम्बर जाने जाते है। द्वात्रिशिकामोंमेंसे कुछके कर्ता सिद्धसेन दिगम्बर मोर कुछ के कर्ता श्वेताम्बर जान पड़ते है और वे उक्त दोनों सिटमेनोंसे भित्र पूर्ववर्ती तथा उत्तरवर्ती अथवा उनमे अभिन्न भी हो सकते है। ऐसा मालूम होता है कि उज्जयिनीकी उस घटनाके साथ जिन सिद्धसेनका सम्बन्ध बतलाया जाता है उन्होंने सबसे पहले कुछ टात्रिशिकमोंकी रचना की है, उनके बाद दूसरे सिद्धसेनान भी कुछ द्वात्रिशिकाएँ रची है और वे सब रचयितामोंके नामसाम्यके कारण परस्परमें मिल जुल गई है, प्रतः उपलब्ध द्वात्रिशिकामों में यह निश्चय करना कि कोन मी द्वात्रिगिका किस सिद्धसेनकी कृति है विशेष अनुसन्धानमे मम्बन्ध रखना है। माधारणतौरपर उपयोगदयके युगपडादादिकी इष्टिमे. जिमे पीछे पट किया जा सका है. प्रथमादि पांचवात्रिशिकामाको दिगम्बर सिद्ध मेनकी. १९वीं तथा 21 वींद्वात्रिशिकामोंको वेताम्बर सिमेनकी और शेष द्वात्रिशिकानोंको दोनोंमेमे किसी भी सम्प्रदायके सिमेनकी प्रथवा दोनों ही सम्प्रदायोंके मिडमेनोंकी पलग अलग कृति कहा जा सकता है। यही इन विभिन्न मिढ मेनोंके सम्प्रदाय-विषयक विवेचनका सार है। MIN देखो, मासिक मं०४८१ से 405 और उनकी टीका अथवा जनहितैषी भाग 11 क १.१.में प्रकाशित मुनिजिनविजयजीका 'प्रमालारण नामक लेख।