________________ तिलोयपएनत्ती और यतिवृषभ 605 विरोध नहीं किया, जिससे वह स्वीकृत जान पड़ता है अथवा उसका विरोध मशक्य प्रतीत होता है। दोनों ही अवस्थानोंमें कौण्डकुन्दपुरान्वयकी उक्त कल्पनासे क्या नतीजा? क्या वह कुन्दकुन्दके समय-सम्बन्धी अपनी धारणाको, प्रबलतर बाधाके उपस्थित होनेपर भी, जीवित रखने प्रादिके उद्देश्यसे की गई है? कुछ समझ नहीं पाता !! नियमसारको उक्त गाथामें प्रयुक्त हुए 'लोयविभागेसु' पदको लेकर मैने को उपयुक्त दो मापत्तियां की थीं उनका भी कोई समुचित समाधान प्रेमीजीने नहीं किया है / उन्होंने अपने उक्त मूल लेखमें तो प्रायः इतना ही कहकर छोड़ दिया है कि "बहुवचनका प्रयोग इसलिये भी इष्ट हो सकता है कि लोक-विभागके अनेक विभागों या अध्यायों में उक्त भेद देखने चाहिये।" परन्तु ग्रन्थकार कुन्द. कुन्दाचार्यका यदि ऐमा अभिप्राय होता तो वे 'लोयविभाग-विभागेमु' ऐमा पद रखते, तभी उक्त प्राशय घटित हो सकता था; परन्तु ऐसा नहीं है, और इस लिये प्रस्तुत पदके विभागेमु' पदका प्राशय यदि ग्रन्थके विभागों या अध्यायोंका लिया जाना है तो ग्रन्थका नाम 'लोक' रह जाता है-'लोकविभाग' नहीं और उममे प्रेमीजीकी मारी युक्ति ही लौट जानी है जो 'लोकविभाग' ग्रन्थके उल्लेखको मानकर की गई है / इमपर प्रेमीजीका उस समय ध्यान गया मालूम नहीं होता। हाँ, बादको किमी ममय उन्हें अपने इस समाधानकी नि.सारताका ध्यान माया जरूर जान पड़ता है और उसके फलस्वरूप उन्होंने परिशिष्टमें समाधानकी एक नई दृष्टिका प्राविष्कार किया है और वह इस प्रकार है "लोपविभागेमु गाद व्व' पाठ पर जो यह प्रापत्ति की गई है कि वह बहुवचनान्न पद है, इसलिये किमी लोकविभागनामक एक अन्य के लिये प्रयुक्त नहीं हो सकता. तो इसका एक समाधान यह हो सकता है कि पाठको 'लोयविभागे सुरणादव्यं' इस प्रकार पढ़ना चाहिये, 'मु' को 'गादच' के साथ मिला देनसे एकवचनान्त 'लोयविभागे' ही रह जायगा और अगली क्रिया 'सुग्गाद' ( सुज्ञातव्यं ) हो जायगी। पद्मप्रभने भी शायद इसी लिये उमका अर्थ 'लोकविभागाभिधानपरमागमे किया है।" इसपर में इतना ही निवेदन करना चाहता हूँ कि प्रथम तो मूलका पाठ बब 'सोयविभागेमु गायब' इस रूपमें स्पष्ट मिल रहा है और टीकामें उसकी