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________________ स्वामी समन्तभद्र १६६ समन्तभद्रके समसामयिक व्यक्ति थे और न समन्तभद्रका उनके साथ कभी कोई साक्षात्कार या वाद ही हुआ । ऐसी हालतमें यहाँ 'धूर्जटि' मे महादेवका अर्थ निकालना भूल खाली नहीं है । वास्तवमें इस पद्यकी रचना केवल समन्तभद्रका महत्व ख्यापित करनेके लिये नहीं हुई बल्कि उसमें समन्तभद्रकं वादविषयकी एक खास घटनाका उल्लेख किया गया है और उससे दो ऐतिहासिक तत्त्वोंका पता चलता है—एक तो यह कि समन्तभद्र के समय में 'धूर्जटि' नामका कोई बहुत बड़ा विद्वान हुग्रा है, जो चतुराईके साथ स्पष्ट शीघ्र और बहुत बोलने में प्रसिद्ध था; उसका यह विशेषण भी उसके तात्कालिक व्यक्तिविशेष होनेको और अधिकता के साथ सूचित करता है, दूसरे यह कि, समन्तभद्रका उसके साथ वाद हुआ, जिसमें वह शीघ्र ही निरुत्तर हो गया और उसे फिर कुछ बोल नहीं आया । पका यह प्राय उसके उस प्राचीन रूपसे और भी ज्यादा स्पष्ट हो जाता है जो एक म० १०५० में उत्कीर्ण हुए मनिप्रशस्ति नामके ५४वें (६ ऽवें) शिलालेख में पाया जाता है और वह रूप इस प्रकार है अवटुनमदनि झटिति स्फुटपटुवा चाटर्जटेरपि जिह्वा । वादिनि समन्तभद्रे स्थितवति तत्र सदसि भूप कास्थान्येषां ।। उसमें बाद अपि शब्द ज्यादा है और चौथे चरण में 'सति का कथान्येषां की जगह 'तब सदसि भूप काम्थान्येषा' ये शब्द दिये हुए हैं। साथ ही उसका छन्द भी दूसरा है। पहला पद्म आर्या और यह 'ग्रायंगीति' नाम है, जिसके समचरणो मे बीस बीस मात्राएं होती है । ग्रस्तु: इस पद्य - में पहले पद्य जो भेद है उस पर यह मालुम होता है कि यह पद्य समंतभद्रकी ओर से अथवा उनकी मौजूदगी उनके किसी शिष्यकी तरफमें, किसी राजसभामं, राजाको सम्बोधन करके कहा गया है। वह राजसभा चाहे वही हो जिसमे 'धूर्जटि को पराजित किया गया है और या वह कोई दूसरी ही राजसभा हो । पहली हालत में यह पद्य धूर्जटिके निम्र होनेके बाद सभास्थित * दावणगेरे तालुके शिलालेख नं० ६० में भी, जो चालुक्य विक्रमके ५३ वें वर्ष, कीलक संवत्सर ( ई० मन ११२८) का लिखा हुआ है यह पद्य इसी प्रकार दिया है । देखो एपिथेफिया करर्णाटिका, जिल्द ११वीं ।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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